एक लड़की की शादी होती है तो उसे पति के साथ मिलती है एक सास. सास व बहू के बीच पुत्र/पति अहम कड़ी होती है. मानने को तो पति और सास दोनों का एक ही लक्ष्य होता है- उस की खुशी, उस की सेहत, उस की प्रगति अर्थात दोनों उस का भला चाहती हैं. किंतु फिर भी सदियों से सासबहू का रिश्ता कड़वाहट भरा माना जाता है. मन में ललिता पवार और शशिकला के फिल्मी वैम्प किरदारों जैसी आकृतियां उभरने लगती हैं.
यदि दामाद, बेटी के पीछे लगा रहे तो बेहतर. लेकिन यदि बेटा, बहू की बात सुनता रहे तो नालायक. नहीं जनाब, सभी सासें ‘सौ दिन सास के’ फिल्म की खड़ूस सास जैसी नहीं होतीं. कुछ ऐसी भी होती हैं जिन्हें पा कर बहुएं मायके का रास्ता भूल जाती हैं. ‘मम्मी’ शब्द का जिक्र आते ही बहुओं को अपनी सास याद आती हैं, अपनी मां नहीं. कैसे बनता है रिश्ता ऐसा? अपनेआप? जी नहीं, अपनेआप नहीं, बल्कि ऐसा दोनों की समझ के तहत होता है. समझदार हैं वे सासबहू जो इस अनमोल रिश्ते की कीमत और गरिमा को पहचानती हैं और देर होने से पहले ही सही कदम उठा लेती हैं.
हर रिश्ता बनाने में समय, धैर्य और परिश्रम लगता है. हथेली पर सरसों नहीं उगती. इसलिए रिश्तों को समय दें और विश्वास बनाए रखें. रिश्ता मजबूत बनेगा. सास और बहू दोनों ही भिन्न परिवेश से आती हैं तो एकदूसरे को समझने का प्रयास करें. कोशिश करें की पहले आप दूसरे की भावनाएं समझें और बाद में मुंह खोलें. याद रखें शब्दबाण एक बार कमान से निकल गए तो उन की वापसी असंभव है, साथ ही, उन के द्वारा दिए घाव भरना भी बहुत मुश्किल. शब्द रिश्तों को पत्थर सा मजबूत भी बना सकते हैं और कांच सा तोड़ भी सकते हैं. सोचसमझ कर शब्दों का प्रयोग करें. यदि चुप्पी से काम चल सके तो चुप रहें.