कभी शादियां बहुत बड़ा सामाजिक उत्सव होती थीं. ऐसा उत्सव जिस में भारी संख्या में लोग शामिल होते थे. बरातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं होती थी. लड़के वाले 300 बरातियों की बात कर के 600-700 बराती ले कर लड़की वालों के दरवाजे पर धूमधड़ाके के साथ पहुंचते थे. लेकिन भारी संख्या में बराती देख लड़की वाले घबराते नहीं थे. उन्होंने ऐसी किसी स्थिति से निबटने के लिए पहले से ही पूरी तैयारी कर रखी होती थी. उन दिनों कैटरिंग सिस्टम नहीं था. बरात के लिए खाना तैयार करने हेतु हलवाई बिठाए जाते थे जो अपने काम में बेहद माहिर होते थे. एक तरह से बरात को निबटाने की सारी जिम्मेदारी हलवाइयों की होती थी.

शादीब्याह के मामलों में हलवाइयों के पास गहरा अनुभव होता था. अगर उन को 300 लोगों का खाना तैयार करने के लिए बोला जाए तो सूझबूझ और समझदारी से काम लेते हुए वे 600 से ज्यादा लोगों के खाने का इंतजाम रखते थे. ज्यादा मेहमानों की वजह से लड़की वालों के शादीब्याह का बजट गड़बड़ाता नहीं था. सस्ता जमाना था. शादीब्याह के आयोजन महंगे होटलों, रिसोर्टों और फार्महाउसों में नहीं, धर्मशालाओं, शादीघरों (मैरिज होम) और किसी खुली जगह पर लगाए गए शामियानों में होते थे. बरातियों की आवभगत लड़की के रिश्तेदार और पड़ोसी किया करते थे, वेटर नहीं. शादीब्याह में सपरिवार शामिल होने का भी रिवाज था. नजदीकी रिश्तेदार ही नहीं, दोस्त और महल्ले के लोग भी बिना किसी हिचक के पूरे परिवार के साथ शादीब्याह के जश्न में शिरकत करते थे. बहुत दूर के रिश्तेदारों को भी शादीब्याह का निमंत्रणपत्र भेजा जाता था, बेटी की ननद की ससुराल वालों तक को भी.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...