फोन की घंटी बजती है. रिसीवर उठाने पर उधर से एक बच्चे की आवाज आती है, ‘‘हैलो आंटी, क्या आप मुझ से थोड़ी देर के लिए बात कर सकती हैं? मैं घर पर अकेला हूं. मम्मीपापा दोनों औफिस गए हैं. मुझे बहुत डर लग रहा है. मुझे टीवी देखने और खिलौनों से खेलने का भी मन नहीं कर रहा, मैं बाहर भी नहीं जा सकता. प्लीज, मुझ से थोड़ी देर के लिए बात कर लीजिए.’’ फिर आधे घंटे तक वह अनजान बच्चा और अनजान आंटी एकदूसरे से बात करते रहे.

पति बरसों पहले दुनिया छोड़ कर जा चुके हैं. एक विवाहित बेटी है जो विदेश में है. न जाने इन दिनों तबीयत को क्या हो गया है, दिन तो किसी तरह गुजर जाता है लेकिन जैसेजैसे शाम ढलने लगती है, अकेलापन काटने को दौड़ता है. घर की दीवारों से डर लगने लगता है. दिल जोर से धड़कने लगता है. दम घुटने लगता है. लगता है कोई हो ऐसा जिस से अपना अकेलापन बांट सकूं, हाथ थाम सकूं. पहले टीवी चलाने से लगता था कोई आसपास है, परदे पर कुछ चलतेफिरते लोग दिख रहे हैं पर अब वह भी बेमानी लगने लगा है. अकेलापन किसी की भी जिंदगी के उजाले को धुंधला कर देता है और मन में निराशा को हावी कर देता है. कभी कोई इंसान भीड़ में भी खुद को अकेला पाता है. कभी यह अकेलापन किसी अपने के दूर चले जाने से होता है, कभी बे्रकअप के कारण होता है, कभी बातचीत के लिए कोई न हो तो होता है.

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