महिलाओं को सुरक्षा देने वाले दहेज, विरासत और प्रताड़ना के कानून अब महिलाओं के लिए ही घातक होने लगे हैं. फर्क यह है कि पहले बहुएं सताई जाती थीं, अब बहुओं के हाथों सासें, भाभियां, ननदें, पति की दादियां सताई जाने लगी हैं. दहेज हत्या के आरोपों में सैकड़ों वृद्ध, अशक्त बीमार महिलाएं देश की जेलों में आंसू बहा कर अंतिम दिन काट रहे हैं और हमारा निर्मम कानून अपनी पीठ थपथपा रहा है कि महिलाओं को न्याय मिल रहा है.

यह ठीक है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी रही है जिस में सासबहू की तनातनी पहले दिन से चालू हो जाती है और घर की रसोई व ड्राइंगरूम एक अनवरत रणक्षेत्र बन जाता है. पति को आखिरकार पत्नी का साथ देना पड़ता है पर फिर भी, लाखों मामलों में पति व उस के संबंधी कानून की काली मशीन में पिसने को मजबूर हो जाते हैं. दिल्ली के एक मामले में, विवाह 1983 में हुआ. 2 बच्चों के बाद 1984 में तलाक हो गया. 2001 तक पति अपनी मां के साथ रहा और तलाकशुदा पत्नी अलग रही. 2003 में जब पति की मृत्यु हो गई तो उस की तलाकशुदा पत्नी ने सासू मां के घर पर कब्जा कर लिया. वह बच्चों के साथ आ धमकी कि उन का कभी तलाक हुआ ही नहीं, पति की वारिस होने के कारण वह ही मकान की मालकिन है. उस ने बूढ़ी, 70 वर्षीया सासू मां को घर से निकालने की कोशिश की तो बुढ़ापे में उस औरत ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. मामला खत्म तो नहीं हुआ पर अदालत ने संयम से कानून की व्याख्या करते हुए वृद्धा को न निकालने का आदेश ही नहीं दिया, बल्कि बेटे की तलाकशुदा पत्नी को घर खाली करने को भी कहा.

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