1971 के चुनावों में गरीबी हटाओ से जीत, 1975 में आपातकाल में अनुशासित पर्व से तानाशाही राज और अब 2014 में अच्छे दिनों के नारों से नेता को सफलता तो मिली और एकछत्र राज करने का सुख भी मिला पर जल्दी ही जनता को लगा कि वह कहीं ठगी गई है. 1971 में गरीबी हटाओ का नारा गरीब हटाओ में बदल गया और अब अच्छे दिनों का मतलब हो गया कि पैट्रोल टमाटर से भी सस्ता हो गया है.

नारों के बलबूते चुनाव जीतना आसान है पर सही शासन करना बहुत मुश्किल होता है. शासन में हर फैसला नारों के हिसाब से नहीं किया जा सकता. नरेंद्र मोदी को सैकड़ों ऐसे निर्णय लेने पड़ रहे हैं जिन का अच्छे दिनों से कोई संबंध नहीं है. बजट में बुलैट ट्रेन या सरदार पटेल की मूर्ति से अच्छे दिनों का कोई संबंध नहीं. नरेंद्र मोदी की ब्राजील यात्रा का जनता के अच्छे दिनों से कोई रिश्ता नहीं.

नरेंद्र मोदी ने नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा की तो अच्छे दिन उन के हो रहे हों तो हों, जनता के तो नहीं हो सकते क्योंकि पूजापाठ का लाभ हस्तांतरित नहीं हो सकता. नरेंद्र मोदी ने मंत्रालयों के सचिवों से मिल कर मंत्रियों के पर काट दिए हों और सचिवों के अच्छे दिन ला दिए हों पर क्या वे जनता को तुरंत अच्छे दिन ट्रकों में भर कर भेज सकते हैं? नहीं, यह असंभव है.

नरेंद्र मोदी सरकार ने राज्यपालों को बदला है तो कांगे्रसी नेताओं का राजपाट गया और भाजपाई नेताओं के अच्छे दिन आ गए राजमहलों में रहने के. पर जनता को क्या मिला? वैसे भी अच्छे दिनों की तो आहट भी नहीं होती. दिन अगर अच्छे आते भी हैं तो जनता उसे अपनी खुद की उपलब्धि समझती है. बिहार के युवा को मुंबई में अच्छी नौकरी मिल जाए तो वह सरकार को शाबाशी नहीं देगा. जयपुर में मैट्रो बन जाए तो श्रेय सरकार को नहीं जाता. दिल्ली में कुछ जनता के दबाव के कारण, कुछ कौमनवैल्थ खेलों के कारण और कुछ 10 साल मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित के कारण सड़कें, फ्लाईओवर, बागबगीचे बने पर कौन किसे धन्यवाद देता है.

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