इंगलैंड द्वारा यूरोपीय यूनियन को छोड़ देने का फैसला दुखदायी है. बड़े सपनों के साथ अलगअलग भाषाओं, अलग तरह के इतिहास, आपसी युद्धों की यादों, अलग रीतिरिवाजों, बहुधर्मी, बहुरंगी बातों को भुला कर एक संयुक्त यूरोप की 26 साल पहले जो कल्पना की गई थी वह अब धराशायी हो गई है. प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने काफी प्रचार किया कि ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन से बाहर न जाए पर 51.9 फीसदी जनता ने जनमत संग्रह के तहत फैसला कर के ब्रुसैल्स से मुंह मोड़ लिया.

यूरोपीय यूनियन ने यूरोप में क्रांति ला दी हो, ऐसा कुछ हुआ नहीं. जो यूरोपीय देश यूनियन से बाहर रहे उन्हें लंबीचौड़ी हानि नहीं हुई. बौर्डरों को समाप्त करने से जिन्हें इधर से उधर जाना था, उन्हें आराम हुआ पर चूंकि यूरोपीय यूनियन एक देश, एक संसद, एक राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री वाला मौडल न बना सका, इसलिए उस की सदस्यता हर देश में हमेशा एक राजनीतिक हथियार बनी रही.

जैसे तिलक और टोपी हिंदू और मुसलिम को एक ही करैंसी के बावजूद अलग करते हैं वैसे ही, हर देश में अलगअलग राजनीतिक दलों की उपस्थिति ने वह रूप नहीं बनाया जिस में गाजर और गोभी को अलग से पहचाना न जा सके. वह सिर्फ मिक्स्ड वैजीटेबल जैसा बन पाया और जरा सी आर्थिक तकलीफ होते ही उन में अलगाववाद उभर आया.

ब्रिटेन वैसे भी यूरोप की मुख्य जमीन से अलग था. टनल से उसे जोड़ा गया था पर समुद्र ने उस में अलगाव का खारा पानी मिला रखा था. अंगरेज यूरोपीय कानूनों, उदारता, जरमनी के बढ़ते प्रभाव, ग्रीस, इटली की आर्थिक समस्याओं से डरने लगे थे. उन्हें लगा था कि पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका से भाग कर आ रहे शरणार्थियों का बोझ उन्हें भी उठाना पड़ेगा.

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