चुनावी गणित ने नरेंद्र मोदी को समझौतावादी रुख अपनाने को मजबूर कर दिया है. उन्होंने कांगे्रस को बुला कर संसद में मिल कर महत्त्वपूर्ण कानून बनवाने में सहायता मांगी है. बिहार चुनावों के परिणामों से पहले भारतीय जनता पार्टी को विश्वास था राम और कृष्ण की कृपा की वजह से वे अपना युद्ध कुछ दिन बाद जीत ही लेंगे पर लगातार बढ़ती कट्टरता के खिलाफ बोलों और चुनावी हारों ने स्पष्ट कर दिया है कि लोकसभा में बहुमत मात्र सरकार की मनमानी के लिए काफी नहीं है. सरकार मुख्यतया गुड्स ऐंड सर्विसेस टैक्स यानी जीएसटी कानून पास करवाना चाहती है, जिस से आशा है कि उत्पादकों व व्यापारियों को बेहद फायदा होगा और खरबों की पूंजी व मेहनत का लाभ आम जनता को मिलेगा. करों का बोझ जनता पर है,  यह तो साफ है पर गुड्स ऐंड सर्विसेस टैक्स यानी जीएसटी कोई रामबाण नहीं. यह द्रौपदी का चीरहरण भी साबित हो सकता है या एकलव्य का अंगूठा काट भी हो सकता है.

आजकल बहुत से करों का हिसाब करना पड़ता है, पर इतने कर हैं ही क्यों? ये कर नौकरशाही की देन हैं जिस ने समयसमय पर नेताओं को बेवकूफ बना कर लागू करवाया. क्या उस समय के नेता समझ नहीं पा रहे थे कि करों का बढ़ता बोझ किस तरह न केवल जनता की जेब पर डाका है, कर वसूलने में डाकुओं की तरह, जनता की कनपटी पर बंदूक रखनी पड़ती है सो अलग. यह बंदूक अकसर चल ही जाती है. हर साल देशभर में हजारों व्यापार इन टैक्सों के कारण बेमौत मर जाते हैं और उन व्यापार स्वामियों की संपत्ति वर्षों तक बेकार पड़ती रहती है. एक गुड्स और सेवा कर क्या इस समस्या को सुलझाएगा - शायद नहीं. एक अफसर के पास अब इतने अधिक अधिकार हो जाएंगे कि वह हर मक्खी को भी मोटी रिश्वत देने को मजबूर कर देगा. इस में कर की दर सब से बड़ी बात है और ऐसा लगता नहीं कि यह कर कम होगा. अगर कर पर कर न हो और कुल कर बराबर हों तो भी कर चोरी तो होगी ही. अफसरों को बहाना मिल जाएगा कि कर चोरों से निबटने के लिए सख्त कानून बनाए जाएं जिस का मतलब असल में उन के द्वारा मोटी रिश्वत वसूलना होगा.

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