भारत के मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर आजकल बहुत खिन्न और रुष्ट नजर आ रहे हैं. मोदी सरकार न्यायपालिका के पर कतर कर उसे अपने पौराणिक नियमों से तो नहीं चलाना चाह रही है पर जो भी कर रही है उस का ध्येय शायद ऐसा ही कुछ है.

न्यायपालिका ने संविधान के सहारे वह स्वतंत्रता हासिल कर ली है जिस की संविधान निर्माताओं ने भी कल्पना नहीं की थी. पर इस का साफ कारण था कि 1947 से 1990 के बीच कांगे्रस ने न्यायपालिका को अपनी सरकार का एक अंग मात्र मान लिया था जिस से जैसे मरजी, निर्णय लिए जा सकते थे क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति सीधे प्रधानमंत्री के हाथों से होती थी.

अब न्यायपालिका अपने न्यायाधीश स्वयं नियुक्त करती है और कानून मंत्री या प्रधानमंत्री सिवा मूकदर्शक के, कुछ नहीं कर पाते. 2004 से 2014 के बीच सोनिया गांधी ने इस तौरतरीके को मान लिया था. पर मध्यवर्ग की धार्मिक सुनामी पर चढ़ कर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी उसे भारी रुकावट मानते हैं. सो, उन्होंने ताबड़तोड़ आयोग, कमेटियां, कानून बनाए कि जजों की नियुक्ति इंदिरा गांधी के शासन के दौरान की तरह हो जाए पर यह फिलहाल संभव नहीं हो पा रहा है.

इसीलिए न्यायपालिका व सरकार के बीच गतिरोध पैदा हो रहा है और न्यायाधीश चिंतित हैं कि सरकार की लापरवाही या जानबूझ कर पैर घसीटने से उच्च न्यायालयों में आधे स्थान खाली हैं और करोड़ों मामले लंबित हैं. लगता यह है कि केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार न्यायपालिका का भगवाकरण करने की फिराक में है.

न्याय देना और सही न्याय देना राज्य का पहला काम है पर यहां तो लगता है कि धर्म की पुनर्स्थापना पहला काम बनता जा रहा है. न्याय व्यवस्था को काले कोट वालों से ले कर पुराणवादियों के हाथों में डालने की साजिश की जा रही है. यह देश के लिए घातक होगा और पौराणिक युग के समर्थक स्वयं उस का खमियाजा भुगतेंगे.

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