इसलामिक स्टेट का पेरिस में कहर ढाना एक तरह से डिप्लोमैसी यानी कूटनीति के लिए अच्छा रहा. अमेरिका, रूस, सऊदी अरब, फ्रांस, ईरान सब उस दुष्ट इसलामिक स्टेट यानी आईएस को निबटाने में अपने हितों को ज्यादा देख रहे थे. दोनों तरफ के लोगों ने जो पैसा एकदूसरे के खिलाफ दिया था उस से ट्रेंड लड़ाकू अब अपने आकाओं की नहीं, इसलामी सोच की सुन रहे हैं. बदलती स्थिति में अब इन खूंखारों को खत्म करने में किस का कैसा नुकसान होगा, यह सब को भूलना होगा. पश्चिमी एशिया की शांति के लिए यूरोप, चीन, अमेरिका, जापान, भारत आदि को भी सोचना होगा. यह समस्या हम से दूर है, यह न सोचें. इसलाम के नाम पर इस समस्या को कहीं भी निर्यात किया जा सकता है. द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू तो यूरोप में हुआ पर उस ने एशिया, अफ्रीका और अमेरिका को भी लपेटे में ले लिया था. वह समाप्त हुआ तब जब जरमनी, जापान और इटली पूरी तरह नष्ट हो गए. और तब यहूदियों को एक देश दिलाया गया जिसे वे अपना कह सकें.

नई कूटनीति के तहत अब केवल सुरक्षा के इंतजाम काफी नहीं हैं, इसलाम को पटरी पर लाना जरूरी है. इस के लिए सऊदी अरब और ईरान, जो सुन्नी और शिया मुसलमानों की शक्ति के केंद्र हैं, लपेटे में लाए जाएं. इन के साथ ही पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नाइजीरिया, सोमालिया, टर्की भी मरम्मत मांगेंगे. कुल मिला कर जहां कट्टर इसलामी हैं, जिन्हें इसलामिस्ट कहना ज्यादा सही रहेगा नाजियों की तरह, को एक कोने में न धकेला जाए. विश्व की ताकतों को हर देश से इसलामिस्टों को निकाल बाहर करना होगा या उन के पर कतरने होंगे. उन की आय के स्रोत बंद करने होंगे. उन्हें पनाह देने वाले केंद्र नष्ट करने होंगे. इसलाम के प्रचार के नाम पर बने कू्ररता और जंगलीपन का पाठ पढ़ाने वालों को नष्ट करना होगा. इस के साथ ही, इन की प्रतिछाया वाले ईसाई, हिंदू व बौद्ध अतिवादियों को भी नियंत्रित करना जरूरी है. अत्याचार व अनाचार का वायरस ऐसा है जो किसी भी धर्म में घुस कर एकजैसा काम कर के लगता है. सभी धर्मों के कट्टर एक तरह से सोचते हैं. वे खुद को ईश्वर का ऐसा दूत मानने लगते हैं जिन के पास हर विरोधी का गला काट देने का लाइसैंस हो, धर्म चाहे कोई भी हो.

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