धार्मिक कट्टरता के विवाद के पीछे असल में पैसा और पावर ही है, चाहे वह इस्लामिक स्टेट का मामला हो, कैथोलिक पोप का या भारत के आरएसएसनुमा का. केंद्र में जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई है, भगवाई धंधे को चमकाने के लिए तरह-तरह की बातें होने लगी हैं और सभी का छिपा मकसद एक ही है कि किसी तरह धर्म के इर्द-गिर्द पैसा जमा करने के स्रोतों को और पक्का किया जा सके.

अयोध्या का मामला हो, गाय के मांस का हो, हिंदू ग्रंथों का हो या पाकिस्तान से बातचीत का, उद्देश्य यही है कि पंडेपुजारियों की श्रेष्ठता को साबित किया जा सके, ताकि मंदिरों व योगाश्रमों में पैसा बरसता रहे. धर्मप्रचारक जानते हैं कि उनकी बातों में लोच है. उनके आदर्श हिंदू देवी-देवताओं की कहानियों में न केवल अनैतिकता, बेईमानी, भ्रष्ट आचरण, धोखा भरा है, बल्कि बहुत से तो बेहद कामुक कुकृत्य भी करते रहे हैं. उनके बारे में  चर्चा न हो, यह टोपीधारी से ले कर तिलकधारी तक, सब चाहते हैं.

लेखकों से उन लोगों को खास चिढ़ है, क्योंकि लेखन से पोल खुलती है. मार्टिन लूथर ने 500 साल पहले पोपशाही को नुकसान पहुंचाया था, तो लिखित शब्दों से, जो उन्होंने कैथोलिक चर्च के दरवाजे पर कील से ठोंके थे और जिस की प्रतियां छाप कर पूरे यूरोप में बेची गई थीं. इस्लामिक स्टेट ने शार्ली एबदो पर हमला इसीलिए कराया था, क्योंकि लिखित, मुद्रित शब्द ज्यादा वजनदार होते हैं बजाय लड़ाकू हवाई जहाजों के.

पुणे में जब लेखिका अरुंधति राय को महात्मा फूले समता पुरस्कार दिया जा रहा था, तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने हल्ला किया, क्योंकि वे लेखकों की कलम बंद करना चाहते हैं. सदियों से ईश निंदा के नाम पर यूरोप, भारत और अमेरिका में धर्म की पोल खोलने वालों को अरुंधती राय की तरह काले झंडों को सहना पड़ रहा है. अगर साहित्यकार अपने सम्मान लौटा रहे हैं, तो इसलिए कि वे समझते हैं कि सरकार का उद्देश्य कट्टरता को बढ़ावा देना व धर्म का प्रचार करना भर रह गया है और अगर उस का वश चले, तो स्वधर्मी आलोचकों को किलों की दीवारों में जिंदा चिनवा दे.

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