भारतीय जनता पार्टी को महाराष्ट्र व हरियाणा विधानसभाओं के चुनावों में मिली जीतों ने उपचुनावों में हुई उस की हारों के धब्बे धो दिए हैं. हालांकि ये 2 राज्य भाजपा की झोली में आ गिरे हैं पर यह भी दिख रहा है कि नरेंद्र मोदी की सफलता अब लोकसभा चुनावों जैसी नहीं है. तर्क दिया जा सकता है कि महाराष्ट्र में भाजपा का अपनेआप बहुमत न पाने के पीछे शिवसेना का अलग चुनाव लड़ना था पर यह भी तो मानना होगा कि शिवसेना ने नरेंद्र मोदी की मुखालफत का जोखिम लिया और अपनेआप को भाजपा की कठपुतली होने से बचा लिया.

जो दिख रहा है उस से साफ है कि अन्य राज्य भी भाजपा की झोली में आ गिरेंगे और जम्मूकश्मीर भी भाजपाई हो जाए, तो आश्चर्य न होगा.

इस की मुख्य वजह चाहे जो भी हो, भाजपा की ये जीतें एक तरह से 1971 की इंदिरा गांधी की जीतों की तरह गहरा सामाजिक प्रभाव डालेंगी. गरीबी हटाओ और समाजवाद के नारे पर पनपी कांगे्रस ने तब सरकारीकरण की एक ऐसी लहर छोड़ी कि देश निकम्मेपन, लाइसैंसराज, रिश्वतखोरी और विघटन का शिकार हो गया. इंदिरा गांधी ने हर चीज को दिल्ली के प्लानिंग कमीशन के इशारे पर चलाना शुरू कर दिया. देश का जो तानाबाना अंगरेजों ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में बुना था जिस में बराबरी, बोलने की आजादी, व्यवसाय की छूट, कानून का राज काफी हद तक कायम था, को उन्होंने 5-7 सालों में समाप्त कर डाला.

इंदिरा गांधी 1975 तक देश पर मानसिक बोझ डाल गई थीं और जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने उन के लोकसभा के चुनाव को खारिज किया तो देश ने राहत की सांस ली, भले ही यह सांस कुछ दिन की रही. बाद में देश ने वह आतंक देखा जो अंगरेजों के समय में भी नहीं दिखा था. उस के बाद देश नहीं संभला. 1977-80 की जनता पार्टी की सरकार भारी बहुमत के बावजूद डगमग रही. 1981-84 के बीच सिख अलगाववाद ने देश का जीना मुहाल कर दिया.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...