हाल के चुनावों में गरीबों के नाम पर वोट लेने वाली पार्टियों का उत्तर प्रदेश, दिल्ली और उत्तराखंड में बुरा हाल हुआ है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का राज भी अब खतरे में है. कम्यूनिस्ट पार्टियों का हाल तो पहले ही बुरा हो चुका है. महाराष्ट्र में अंबेडकर के नाम पर बनी पार्टियों की जरा सी भी पहचान नहीं बची है.

इस की वजह यह रही है कि गरीबों का नाम ले कर उन्हें सपने दिखाने वाली पार्टियां उन की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाईं. इस देश के गरीब को पेट भर खाने के अलावा इज्जत और सुरक्षा भी चाहिए और ये पार्टियां दोनों ही नहीं दे पाईं. बहुजन समाज पार्टी भी बुरी तरह बेकार साबित हुई. बिहार में अभी इन पार्टियों का राज है, पर वह ज्यादा टिक नहीं सकता.

गरीबों को इज्जत दिलाने के लिए उन में सामाजिक बदलाव की जो जरूरत है, उस पर ये पार्टियां बिलकुल ध्यान नहीं दे रहीं. गरीबों को जातपांत, रस्मों, शराब, गंदगी, पढ़ाई की कमी, कम उम्र में शादी, दिखावे में कर्ज ले कर खर्च करने जैसे कांटों का सामना हर रोज करना पड़ता है. पार्टियां गरीबों के वोट तो चाहती हैं, पर उन्हें सदियों से बने गढ़ों में से निकालने के लिए हाथ नहीं बढ़ाना चाहतीं.

गरीब जनता को बस राशन या गैस ही नहीं चाहिए, उसे जिंदगी जीने के सही उसूलों की जानकारी भी चाहिए और ओझाओं, गुनियों, पंडितों, मौलवियों के अलावा उन के पास कोई और कैसा भी रास्ता दिखाने वाला नहीं होता. गरीबों की हमदर्द पार्टियों के पास मौका था कि वे यह काम भी कर लें, ताकि गरीबों की हर तरह की दोस्त व सलाहकार बन सकें, पर उन्होंने सत्ता में आते ही सत्ता का फायदा उठाना शुरू कर दिया. जिन की सेवा करनी चाहिए थी, उन्हें अपनी सेवा में लगा लिया.

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