अब अकेलों, विदेशियों और छात्रों को बड़े शहरों में रहने के लिए अच्छे घर किराए पर नहीं मिलते, क्योंकि बहुत सी सोसाइटियों ने इन पर पाबंदियां लगानी शुरू कर दी हैं ताकि परिवारों को असहजता न सहनी पड़े. दूसरे शहर से अपने मातापिता का घर छोड़ कर आए अकेले यदि ढंग का मकान ढूंढ़ते हैं, तो उन से हजार सवाल पूछे जाने लगे हैं ताकि उस कौंप्लैक्स में रहने वाले दूसरों को टेढ़ी स्थिति न सहनी पड़े.

यह टेढ़ी स्थिति निस्संदेह अकेले, छात्र और विदेशी ही पैदा करते हैं. इन के आनेजाने का समय नियत नहीं होता. शराब, सिगरेट जम कर पी जाती है. पार्टियां दी जाती हैं. घर को दोस्तों का अड्डा बना लिया जाता है. गरम खून पड़ोस के फ्लैट वालों, चौकीदारों, सप्लायर्स से लड़ाई करते रहते हैं. ज्यादातर युवा किराएदारों को खुद काम कर के सफाई की आदत नहीं होती. वे दूसरों के काम नहीं आते पर जीजी कर के दूसरों से सहायता मांगने में तेज होते हैं.

आज के युवा वैसे ही खीजे से होते हैं और ऊपर से चाहे आंटीआंटी कहें पर पीछे से खूंसट, काली, मोटी जैसे नामों से ही पड़ोसिनों को नवाजते रहते हैं.

चूंकि ये किराएदार होते हैं, इन्हें सोसाइटियों के लौंग टर्म कार्यक्रमों में कोई शामिल नहीं करता. ये उन से घुलतेमिलते भी नहीं, अगर परमानैंट ओनर इन्हें घुसपैठिया मानते हैं, तो ये पड़ोसियों को अनअवौइडेबल न्यूसैंस मान कर चलते हैं.

सामाजिकता का तकाजा है कि आसपास के लोग हिलमिल कर रहें और एकदूसरे के काम आएं. यही नहीं, व्हैन इन रोम, लिव लाइक रोमनर्स का सिद्धांत अपना कर सब के साथ मिलेंबैठें चाहे किराएदार ही क्यों न हों. पूरी सोसाइटी या कौंप्लैक्स की जिम्मेदारी में बराबरी से हिस्सा लें. पर यह पाठ पढ़ाए कौन?

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