भारतीय जनता पार्टी की असल जान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऊंचे पदों पर बैठे लोग अकसर शास्त्रों में दी गई जाति को फिर से जिंदा करने की बात करने लगते हैं और जाति के तोड़ आरक्षण को खत्म करने पर सोचने का सुझाव दे डालते हैं. यह बात दूसरी है कि पार्टी में ही खलबली मचने पर वे कहते फिरते हैं कि उन का मतलब कुछ और था. इन महानों में मोहन भागवत व मनमोहन वै- शामिल हैं. सही बात तो यह है कि जाति का सवाल हमारी सोच में इस तरह घुलामिला है कि इसे खत्म करने की कोशिश नाकाम है. पैदा होते ही हर बच्चे के गले में जाति की तख्ती लटका दी जाती है, जो उसे जिंदगीभर ढोनी होती है. जो ऊंची जातियों के हैं, वे भी खुश हैं, जरूरी नहीं. अगर ब्राह्मण का बेटा दूसरों के साथ खेलता है, तो उसे ‘ओ पंडे’, ‘ओ शास्त्री’ सुनने को मिलता है. अछूत का बच्चा ऊंचों के साथ खेलता है, तो दुत्कारा जाता है.

मजेदार बात यह है कि नीची सताई जातियां भी अपनों में ऊंचनीच का जम कर खयाल रखती हैं और शादी के समय खयाल रखती हैं कि कहीं लड़का किसी नीची जाति की लड़की को घर न ले आए. मोहन भागवत और मनमोहन वै- ने जाति के आरक्षण को खत्म करने की बात कर के गलत नहीं कहा, क्योंकि 70 साल के आरक्षण ने कुछ बदलाव नहीं किया. यह हमारे समाज की पथरीली सोच का नतीजा है. डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने सोचा था कि 10-20 साल में आजादी के बाद आई साइंस की सोच सब को साथ कर देगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और आज भी सारी राजनीति और सारी सरकारी मशीनरी जाति पर टिकी है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चुनावों में जाति व धर्म के नाम पर वोट न लिए जाएं, पर देने वालों को कौन कैसे रोक सकता है. जाति, जो पैदा होते ही माथे पर लिख दी जाती है, वोट डालते हुए जोर मारती है और चुनावी हारजीत इस पर ही टिकी है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...