अमेरिका में नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में देश को अमेरिका का पहला दोस्त बताने की भरपूर कोशिश की है और अमेरिका, जो पाकिस्तान की आतंकवादियों को पनाह देने की वजह से परेशान है, इस से काफी खुश है. पर इस का मतलब यह नहीं है कि अमेरिका की दोस्ती की वजह से भारत को दुनिया में जरमनी या चीन की जगह मिल जाएगी.

अमेरिकी संसद कैपिटोल में चाहे हम कितने ही गाल बजा लें कि भारत में वही लोकतंत्र है जो अमेरिका में है या डाक्टर भीमराव अंबेडकर अमेरिका के ही कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़े थे, सच तो यह है कि जमीनी हकीकत में भारत 1947 से कुछ गज आगे बढ़ा है. आज भी देश के गांवों, कसबों और शहरों के गरीबों के महल्ले ऐसे हैं, जैसे सीरिया में बमबारी के बाद वहां के इलाके नजर आते हैं.

अमेरिका के शहरों में भव्य बाजारों में ऊंची जातियों के भारतीय मूल के अमेरिकियों के साथ घूमते हुए देश का बखान करना एक बात है, पर यह सच नहीं झुठलाया जा सकता है कि भारत का हर नौजवान, एमबीए, डाक्टर, इंजीनियर हो या एक साधारण मजदूर, देश से बाहर जा कर काम करना चाहता है. नरेंद्र मोदी को जो तालियां मिल रही हैं, वे उन लोगों की हैं, जो भारत से गए थे और धर्म की गठरी साथ ले गए थे. और अब नरेंद्र मोदी में उन्हें भारतीय पोप नजर आ रहा है. उन की भारत लौट कर आने की कतई मंशा नहीं है.

हम अमेरिका, जरमनी, स्वीडन, चीन का मुकाबला तब करेंगे, जब विदेशों में बसे भारतीय भारत लौटने की कोशिश करें. उन्हें भारत में अपने बढि़या अच्छे कल की आस हो. भारत ने साइंस, टैक्नोलौजी, कंप्यूटर सौफ्टवेयर में काफी छलांगें मारी हैं, पर अभी भी दुनिया के देश भारत को बराबर का नहीं समझ रहे हैं. हां, बड़ा देश होने की वजह से हम दुनिया के बहुत से देशों के लिए बड़े खरीदार हैं और इसीलिए हमें भाव मिलता है. खरीदार इसलिए हैं, क्योंकि भारत का मजदूर चाहे भारत में हो या विदेशों में हो, आज भी जीतोड़ मेहनत करता है, पर उस के पास पैसा बचता कहां है? वह तो यहां के धन्ना सेठों, अफसरों और नेताओं की जेबों में चला जाता है, जो उस पैसे से मौज करते हैं.

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