नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा की साझेदारी वैसी ही लग रही है जैसी जवाहरलाल नेहरू और निकिता ख्रुश्चेव की एक जमाने में थी. जिस तरह से जवाहरलाल नेहरू रूसियों के आगेपीछे बिछे फिरते रहे थे, आज नरेंद्र मोदी अमेरिकियों को गले लगा रहे हैं. 1950 के दशक में देश के कम्युनिस्टों ने भारत को रूसी खेमे में धकेला था और 2010 के दशक से उद्योगपति व अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के अमीर भारत को अमेरिकी खेमे में खींच रहे हैं.

रूसी हनीमून ने भारत का बहुत नुकसान किया. अंगरेजी शासन के तुरंत बाद भारत की आर्थिक नीतियों ने पलटा खाया और भारतीय उद्योगपति सरकारी अफसरों व नेताओं के गुलाम हो गए. कोटा लाइसैंस यानी परमिटराज में कुछ ने तो पैसा बनाया पर ज्यादातर जनता का पैसा निखट्टू, निकम्मे भ्रष्ट सरकारी अफसरों व सरकारी उद्योगों को नष्ट करने के लिए सौंप दिया गया. 1947 का ठीकठाक देश 1970 तक कंगाल हो गया. 2010 के दशक का देश कोई महान काम कर रहा हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता पर फिर भी सरकारी शिकंजों की ढील के बाद हमारी सस्ती और अर्धकुशल लेबर फोर्स के कारण देश खासी प्रगति कर रहा है. अब, क्या हम पूरी तरह अमेरिकी कंपनियों और अमेरिकी बैंकरों के गुलाम हो जाएंगे?

बराक ओबामा अकेले भारत नहीं आए, कई जहाज भर कर अमेरिकी उद्योगपति भी आए और भारतीय उद्योगपति ओबामा की आड़ में उन से मिलने के लिए घंटों कतार में लगे रहे. वे बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स की तरह देश से किसी बीमारी या गरीबी को दूर करने के लिए अमेरिका से नहीं आए, वे अपनी कंपनियों की बैलेंस शीटों को मोटा करने के लिए आए. उन्हें भारत की गंदगी, गरीबी या गिरीपिटी हालत से कोई हमदर्दी नहीं है. बराक ओबामा से दोस्ती का अर्थ अगर भारत की जनता में स्वतंत्रताओं, परिश्रम, नई तकनीक को अपनाना, अनुशासन, स्वच्छ वातावरण, साफगोई होता तो बात दूसरी होती पर कोई राष्ट्रपति ये चीजें उपहार में दूसरे देश में नहीं देता. इन्हें तो उस देश की जनता ही देती है. बराकनरेंद्र दोस्ती में इस के आदानप्रदान के लक्षण कहीं नहीं दिख रहे. नमस्ते कहना देश को अपनाना नहीं है, देश को फुसलाना है ठीक वैसे ही जैसे रूस ने राजकपूर की फिल्मों को अपनाकर फुसलाया था.

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