देश के विकास के लिए सरकार विदेशी पूंजी को फौरेन डायरैक्ट इनवैस्टमैंट रूट के जरिए बड़े लालगलीचे बिछा कर स्वागत करने के लिए खड़ी रहती है. नरेंद्र मोदी की सरकार ने इस बारे में कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखाया है. इस में शक नहीं कि चीन व अन्य कम विकसित देशों ने भी विदेशी कंपनियों का अपनी जमीन पर पैर जमाने के लिए खुलेदिल से स्वागत किया जैसा मुगल बादशाहों ने अंगरेजों का और मुसलिम आक्रमणकारियों के समय हिंदू राजाओं ने किया. नतीजा क्या हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं है.

पर वही सरकार, जो विदेशी व्यापारियों को मुनाफा बनाने के लिए पैसा लाने पर उत्सुक दिखती है, विचारों, स्वास्थ्य, समाजसुधार, वनरक्षा, पशुप्रेम, पर्यावरण संरक्षण, ऐतिहासिक धरोहरों के पुनर्निर्माण आदि मामलों में पैसा देने वाली विदेशी संस्थाओं को भय से देखती है. भाजपा सरकार से पहले बना फौरेन रैमीटैंस कानून कांग्रेस सरकार ने बनाया था जो नहीं चाहती थी कि किसी ऐसे के हाथ में पैसा आए जो सरकार की पोलपट्टी अपरोक्ष रूप से भी खोल सके.

भाजपा सरकार तो इस बारे में बहुत बेचैन है क्योंकि वह मुनाफे की भाषा तो समझती है पर बाकी सब बातें उस के लिए निरर्थक हैं. पैसा बने, यह मंजूर है क्योंकि हिंदू धर्म इसी पर टिका है पर न्याय, पर्यावरण, बराबरी, बीमारी, गरीबी, भुखमरी, इतिहास उस के लिए निरर्थक हैं क्योंकि ये सब विश्वगुरु होने के दावे की पोल खोलते हैं. कांग्रेसी कानून के अंतर्गत लगभग 36,000 संस्थाओं ने विदेशी सहायता का जुगाड़ कर रखा था. मौजूदा सरकार ने लगभग 11,000 संस्थाओं पर विदेशी धन लाने पर प्रतिबंध लगा दिया है. विदेशी पैसा मुफ्त में आता हो, यह तो संभव नहीं है. विदेशी स्वयंसेवी भारत आते हैं तो इसलिए नहीं कि उन का दिल यहां की गरीबी, बीमारी देख कर पसीजता है बल्कि इसलिए कि वे एक नया अनुभव चाहते हैं और एक ऐसे समाज के बारे में जानना चाहते हैं जो एक वर्ग को या एक प्रथा को यथावत रखना चाहता है. उन्हें भारत में पैर रखने की जगह चाहिए होती है और जब वे आ जाते हैं तो देश की बुरी हालत पर टिप्पणी किए बिना नहीं मानते.

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