नरेंद्र मोदी सरकार ने 3 सितंबर को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मोहन भागवत, सुरेश जोशी, दत्तात्रेय होसबोले, कृष्ण गोपाल व राम माधव को दी. रिपोर्ट प्रस्तुत करने वालों में नरेंद्र मोदी के अलावा राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मनोहर पर्रिकर, वेंकैया नायडू व अनंत कुमार आदि थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हर मंत्रालय की रिपोर्ट दी गई और जो बातचीत हुई उस का केवल ब्योरा ही बाहर आया.

भारतीय जनता पार्टी की बागडोर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ में है, यह छिपी बात नहीं है. पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी दोनों साफसाफ कहते रहे हैं कि वे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही चलेंगे. अब अगर वे सत्ता में हैं तो यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चतुराई और कर्मठता है कि उस ने ब्राह्मणवादी गुट को पूरे देश से स्वीकार करा लिया और रामविलास पासवान व उदितराज जैसे ब्राह्मणवाद विरोधियों को अपने दायरे में बांध लिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीति देश को पौराणिक परंपराओं के अनुसार चलाने की है और अगर देश की जनता इस रास्ते पर चलना चाहे तो इस से कैसे बचा जा सकता है. आज पूरा पश्चिमी एशिया इसलामी आतंक की आग में झुलस रहा है और यह आग बंगलादेश, इंडोनेशिया, मलयेशिया व अफ्रीका के कितने ही देशों और यहां तक कि यूरोप में जनजीवन पर कहर ढा रही है तो गलत क्या है? जब धर्म का अंधानुकरण किया जाएगा तो विध्वंस होगा ही.

भारत अगर सदियों गुलाम रहा तो इस का मुख्य कारण धर्मजनित जाति व्यवस्था रही है जिस के चलते हथियार उठाने का हक केवल क्षत्रियों को था और काम करने की जिम्मेदारियां नीची जातियों की. ब्राह्मण दोनों ही नहीं करते. वे आग जला कर मंत्र पढ़ने का नाटक करते रहते. वे सब से सेवा करवा लेते. आज भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यही कर रहा है. इस बैठक में उस ने हिसाब लिया पर सिवा नरेंद्र मोदी और उन के मंत्रियों व सांसदों के लिए वोट बटोरने के, उस का और क्या योगदान था? कंपनियों के शेयरहोल्डरों की तरह उन की तो पूंजी भी नहीं लगी थी. सरकार से हिसाब संसद मांगे, जनता मांगे, प्रैस मांगे, अदालत मांगे, यह समझा जा सकता है क्योंकि इन के हितअहित और इन का भविष्य सरकार पर निर्भर है और सरकार इन के प्रबंध या टैक्स पर जीवित है. पर संघ का क्या योगदान है? संघ उस परंपरा को दोहरा रहा है जो सदियों से कई देशों में चली आ रही है जिस में पुरोहितों की चलती थी. उस युग में बेहद हिंसा होती और अन्याय होता था, यह न भूलें. लोकतंत्र में आज क्या पुरोहितवाद की जगह है?

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