कश्मीर समस्या को हल करने के लिए श्रीनगर गई सर्वदलीय कमेटी छोटा मुंह लटका कर लौट आई है. अलगाववादियों ने आजादी के सिवा किसी मुद्दे पर बात करने से इनकार कर दिया और वे भारतीय संविधान के बाहर बात करना चाहते हैं. यह नरेंद्र मोदी और महबूबा मुफ्ती की मिलीजुली सरकार के प्रयोग की असफलता है.

कश्मीर अलग होना चाहता है, पाकिस्तान से मिलना चाहता है, दिल्ली के कठोर नियंत्रण से मुक्त होना चाहता है, सेना हटवाने की इच्छा रखता है, सब बेमतलब की दिखावटी बातें हैं. असल बात यह है कि 1947 से अब तक हम भारतीय, कश्मीरियों को भरोसा न दिला पाए कि उन की प्रगति, विकास व सुरक्षा भारत के हाथों में ज्यादा कामयाब रहेगी. अलगाववादी धर्म के नाम पर कश्मीरियों को आम भारतीयों से अलग रखने में सफल रहे हैं. कोई भी भूखंड तब देश बनता है जब उस के निवासी चाहें कि वे एक नेता, एक कानून, एक झंडे, एक फौज, एक प्रशासन के अंतर्गत ज्यादा सुखी रहेंगे. वह युग गया जब तलवार या तोपों के बल पर देश बनाए जाते थे. पर इस का यह मतलब भी नहीं कि शतप्रतिशत निवासी ही यह चाहें. कुछ ऐतिहासिक कारणों से और कुछ सामाजिक कारणों से देश बनतेबिगड़ते रहे हैं.

1971 में पाकिस्तान को अपना विभाजन उसी तरह झेलना पड़ा जैसा भारत को 1947 में झेलना पड़ा था. हर देश में कुछ लोग अलग होने की मांग को ले कर सरकार से नाराजगी जताएंगे ही पर दूसरों का काम है कि वे ज्यादातर को भरोसा दिलाएं कि वे एक देश में ही अच्छे रहेंगे. 1947 से ही, पहले कांगे्रस ने और फिर भारतीय जनता पार्टी ने देश की जनता से कश्मीरियों को अपनाने को कभी नहीं कहा. कश्मीरी भारत में रह कर अपने को अगर बेगानेपराए समझते रहे हैं तो यह हमारे नेतृत्व की कमी रही है. हम सोचते रहे हैं कि सेना के बल पर आज नहीं तो कल, हम अलगाववादियों की हिम्मत तोड़ देंगे. पर यह 70 साल में हुआ नहीं है. देश भी मनाने से ज्यादा धमकाने में लगा रहा. जिस तरह भारत ने सिखों को मनाया, वह कोशिश कश्मीरियों के साथ हुई हो, लगता नहीं. हमारे देश का ऊंचे वर्णों वाला नेतृत्व उसी तरह कश्मीरियों से व्यवहार करने की कोशिश करता रहा, जैसा वह दलितों व पिछड़ों के साथ सदियों से करता रहा, चाहे इस कारण उस ने 2,000 साल की राजनीतिक गुलामी सही थी. भारत का अति धर्मांध बन जाना भी दोनों के बीच एक दीवार बन गया है. पिछले 70 सालों में वैज्ञानिकता व तार्किकता को नकारा गया है लेकिन उसी की देन तकनीक जरूर अपनाई गई है. इस से कश्मीरियों को धर्म का सहारा मिला है और वे भारत को विधर्मी भी मानने लगे हैं जबकि यहां भी 17 करोड़ मुसमलान हैं. सर्वदलीय कमेटी के पास लंबेचौड़े फार्मूले नहीं थे पर कश्मीरियों से बात तक न हो पाना बेहद अफसोस की बात है.

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