केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी जीतों के साथसाथ विधायकों, सांसदों और पार्षदों की खरीदफरोख्त को भी नेतृत्व करने का एक शस्त्र बना लिया है. रोचक बात यह है कि दूसरे जनप्रतिनिधियों को अपने पाले में लाने की तिकड़म के बावजूद उस का दूसरों से ज्यादा नैतिक होने का दावा बरकरार है.

भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, अन्नाद्रमुक, बहुजन समाज पार्टी को काले रंग से पोता जा रहा है, जबकि चुने हुए लोगों को फोड़ना भी भ्रष्टाचार ही है.

वैसे, यह शासन की बहुत पुरानी तकनीक है और हर समाज, देश, क्षेत्र व काल में अपनाई गई है. कहानियों के अनुसार, ईसा मसीह को पकड़वाने में उन्हीं के निकटवर्ती लोगों में से एक का हाथ था और राम द्वारा रावण को हराने में उसी के भाई का रहस्य खोलना था जिसे पौराणिक कथा के अनुसार राजा बना दिया गया.

नैतिकता का तो तकाजा है कि लोकतंत्र में शासक न तो पैसे का भ्रष्टाचार करें न चुने लोगों का. आज लगभग हर देश में वोट दल को मिलते हैं, वोट पाने वाले प्रतिनिधि को नहीं. देशों के विधानमंडलों में बैठे लोग अपनी पार्टी की नीति के कारण जीतते हैं. उन का अपना व्यक्तित्व उन की जीत में 5 प्रतिशत महत्त्व का भी नहीं होता. यदाकदा ही पार्टी से रूठ कर कोई स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ कर जीत पाता है.

आज देश में एक बार फिर आयारामों, गयारामों की लहर फैलाई जा रही है. वास्तविक सत्ता के निकट आने का मोह बहुत कमों को ही मिलते अवसर को लपकने से नैतिकता के नाम पर रोकता है. बिहार, उत्तर प्रदेश या गुजरात में जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध चुनाव लड़ कर जीत हासिल की उन का भारतीय जनता पार्टी के साथ हाथ मिला लेना राजनीतिक चतुराई भले ही हो पर इस से संदेश यही मिलता है कि अंधे इश्क और अंधी राजनीति में सब जायज है.

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