सारदा, सहारा, मार्गदर्शी, संचिता जैसी सैकड़ों चिटफंड व नौनबैंकिंग फाइनैंस कंपनियों के चक्कर में लोग आखिर क्यों आ जाते हैं, यह पहेली है. इन कंपनियों ने आम जनता के अरबों रुपए हड़प लिए और उस के बावजूद वे फलफूल रही हैं. अभी हाल में पिरामिड मार्केटिंग करने वाली एक अमेरिकन कंपनी के गोरखधंधे का मामला सामने आया और उस के अमेरिकी मुखिया को केरल में कई रातें जेल में गुजारनी पड़ीं.

इन कंपनियों की तर्ज पर तकरीबन हर महल्ले में छोटीछोटी फाइनैंस कंपनियां खुली हैं जो 15 से 25 प्रतिशत तक ब्याज देने का लालच दे कर करोड़ों जमा करती हैं और फिर एक दिन दरवाजा बंद कर के गायब हो जाती हैं. जमा करने वाले जबतक पुलिस, अदालत पहुंचते हैं, कंपनियों के मालिक पैसा उड़ा चुके होते हैं.

असल परेशानी है कि छोटी बचत वाले नागरिक इतने बेवकूफ हैं कि वे समझ नहीं पाते कि मोटा ब्याज देने वाला आखिर पैसा लाएगा कहां से. हमारे देश की अभी भी यह मानसिकता बनी है कि पैसा चमत्कारों की देन है. तभी तो धर्म की दुकानों पर लंबी लाइनें लगी रहती हैं.

यही लोग इन फाइनैंस कंपनियों के एजेंटों के बहकावे में आ जाते हैं जैसे वे धर्म के एजेंटों के बहकावे में आते हैं. वे कंपनी की तड़कभड़क, वहां लगी लंबी कतारों, एजेंटों का वाक्य कि जमा कराने का शुभ मुहूर्त बस निकला जा रहा है, लोगों को सम्मोहित कर देता है.

सरकार चिटफंड कंपनियों और छोटी फाइनैंस कंपनियों पर नकेल डालने का कानून बनाने पर विचार कर रही है पर यह कानून केवल लूट के बंटवारे में सरकारी अफसरों को शामिल करने के अलावा कुछ न करेगा. 

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