1947 में हमें स्वतंत्रता मिली थी पर अंगरेजों से उपहार में. हम ने किया बहुत कम था पर बातें बड़ी बनाई थीं और गांधीनेहरू का राज उस समय कट्टर हिंदू राज से कहीं कम न था, जहां चलती चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, राजेंद्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल और खुद गांधी जैसे धर्मभक्तों की थी. नतीजा जो हुआ, सामने है. भारत गरीबी की गोद में समाया रहा. एक तो विभाजन का दंश झेला, ऊपर से अर्थव्यवस्था का घोर सरकारीकरण जो एक तरह से ब्राह्मीकरण था. जो आजादी अंगरेजों के गुलाम भारत में थी वह बहुत कम हो गई क्योंकि राज, कानून का नहीं, अफसरों का हो गया जो शिक्षित और सक्षम ऊंची जमातों के थे. मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद देश के मेहनतकश गरीबों को सरकारी नौकरियों में घुसने की आस हुई. अतिरिक्त आरक्षण के लालच में उन्होंने जो शिक्षा लेनी शुरू की उस का परिणाम 1991 से 2008 तक दिख गया. भारत निरंतर आर्थिक प्रगति करता रहा और राममंदिर के भूकंप को भी सह गया.

भारतीय जनता पार्टी के प्रथम शासन के दौरान देश हिंदू राष्ट्र की दलदल में फंसने लगा. देश की बड़ी जनसंख्या को इस का एहसास भी हो गया और उस ने 2004 में विदेशी मूल की सोनिया गांधी के मुकाबले विशुद्ध भारतीय उच्च जाति के अटल बिहारी वाजपेयी को अस्वीकार कर दिया. यही नहीं, 2009 में भी जब यह डर सामने था कि कांगे्रस हारेगी, कांग्रेस जीत गई. पर 2014 में कट्टरवादियों ने दूसरी रणनीति अपनाई. उन्होंने कांगे्रस सरकार में विभीषणों की फौज तैयार की और साथ ही साथ धर्मप्रचारकों को देशभर में राजनीतिक प्रचार में लगा दिया. नतीजा यह हुआ कि गुजरात के 2002 के दंगों के धब्बों के बावजूद नरेंद्र मोदी को चुन लिया गया. लेकिन यह कोई विजय नहीं साबित हो रही. आम हिंदू राजाओं की तरह नरेंद्र मोदी चक्रवर्ती राजा बनने का सपना देखते हुए अपना अवश्वमेध यज्ञ का घोड़ा दुनियाभर में घुमा तो रहे हैं पर उन के राज में आम जनता त्राहित्राहि कर रही है.

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