अमेरिका में जेलों को सरकारी विभाग ही नहीं चलाते, प्राइवेट कंपनियां भी चलाती हैं जो सरकार से कैदियों के रखने का खर्च लेती हैं. अमेरिकी सरकारें 4,800 अरब रुपए सालाना कैदियों पर खर्च करती हैं जिस का बहुत बड़ा हिस्सा इन प्राइवेट कंपनियों को ही जाता है. अब पता चलने लगा है कि ये कंपनियां जेलों में कैदी बढ़ते रहें, इस के लिए नएनए कानूनों की वकालत पर मोटा पैसा खर्च करती हैं और अगर कहीं कोई सरकार किसी कानून को ढीला करना चाहे तो उस के विरोध में चुने गए जनप्रतिनिधियों को पटाने में लग जाती हैं.

हमारे देश में भी यही हो रहा है. यहां जेलों में कैदियों की गिनती बढ़ रही है और जनता के मन में बैठाया जा रहा कि जिस पर आरोप लगे उसे जेल मिले, बेल नहीं. किसी को भी जेल में देख कर हमें पाशविक सुख का अनुभव होता है. यह गलत है. जेल के कई लाभ होते हैं पर सब से बड़ा यही होता है कि उद्दंड अपराधी को कुछ देर के लिए समाज से दूर कर दिया जाता है. पर जेल को निरर्थक सजाघर की तरह इस्तेमाल करना जेल अधिकारियों को अपार अधिकार देना है जो अमेरिका की निजी जेलों जैसे हैं. निजी जेलों में कंपनियां अपने मुनाफे देखती हैं, यहां जेलर व जेल अधिकारी.

जेलों में अपराधी जमा हो जाते हैं और इसलिए यह कहना कि वहां अपराध नहीं होते और अपराधी को अपराधभाव का दुख होता है गलत होगा. जेलों का होना जरूरी है पर उन में कैदी इतने कम हों कि जब तक कोई विशेष बात न हो, किसी को जेल में न डाला जाए. एक अपराधी या आरोपी के जेल में जाने से एक तरह से पूरा परिवार जेल में चला जाता है. मानसिक अवसाद छा जाता है. बहुत सा पैसा वकीलों की भेंट चढ़ जाता है. जेलों में भी हर तरह की रिश्वतें देनी पड़ती हैं. बच्चे परेशान हो जाते हैं. समाज उन्हें हिकारत से देखता है. अपराधी पेशेवर हो या अपराध गलती से हो, जेल में उस के साथ वही व्यवहार होता है और बाहर समाज उस के परिवार के साथ वही व्यवहार करता है. जेलों को धंधा नहीं बनाया जा सकता. आज चाहेअनचाहे अमेरिका में कंपनियों के लिए और यहां अफसरों के लिए यह धंधा बन गया है. विधायिका और न्यायपालिका को इस पर तुरंत रोक लगानी चाहिए.

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