दुनिया ने पिछले 25 साल में बहुत तरक्की की है. इंटरनैट ने जिंदगी बदल डाली. हर तरह की जानकारी सैकंड में मिल जाती है. सारी दुनिया एक धागे में बंध गई. क्या वाकई दुनिया ने ‘पा’ के सफेद ग्लोब जैसा एक ग्लोब बना डाला है जिस में देशों की लाइनें ही नहीं थीं? क्या वाकई हम ग्लोबल विलेज बन रहे हैं?

शायद नहीं. यह ठीक है कि 18वीं, 19वीं और 20वीं सदी की तरह की लड़ाइयां अब नहीं हो रही हैं पर अब उस से ज्यादा दहशत का माहौल है. यह दहशत बढ़ रही है, इंटरनैट के फैलाव की तरह. लगता है जैसेजैसे इंटरनैट बढ़ रहा है, उस का असर गहरा हो रहा है, दुनिया की समस्याएं बढ़ रही हैं, लोगों में खाई बढ़ रही है.

अमेरिका में पुलिस वालों को मारा जाने लगा है. अमेरिकी पुलिस कालों को जन्मजात अपराधी मान कर उन्हें कभी भी बंदूक का निशाना बना डालती है. सीरिया और उत्तरी अफ्रीका के झगड़ों से परेशान लाखों परिवार सुरक्षा व रोजीरोटी की तलाश में जान जोखिम में डाल कर यूरोप में जबरन घुस रहे हैं, नंगे पांव, बिना खाना साथ लिए, छोटे बच्चों और बूढ़े बाप के साथ.

भारत कौन सा बचा है. कश्मीर फिर उबल रहा है. आरक्षण के पक्ष व विपक्ष की लाइनें उभरने लगी हैं. गौ सेवकों ने इसलामिक स्टेट जैसा संगठन बनाने की तैयारी कर ली है. माओवादी किसी भी तरह काबू में नहीं आ रहे.

इन सब को आपस में कौन जोड़ रहा है? वही इंटरनैट जिस ने दुनिया के देशों की नक्शे पर खिंची लाइनें मिटा दी हैं. कोई भी किशोर सैकंडों में फ्रांस के नीस शहर में 9 टन के ट्रक की चपेट में आए 80 लोगों का ट्रक द्वारा कुचले जाने वाला वीडियो देख सकता है पर क्या यह उन्हें वायलैंस के खिलाफ तैयार कर रहा है या वायलैंस पू्रफ बना रहा है.

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