सरकारी प्रयोगों के कारण देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाने लगी है. पहले नोटबंदी, फिर कालेधन का हल्ला और अब जीएसटी के भूत के कारण उत्पादक शक्ति व्यापार संभालने में लग रही है. नेता और अफसर शायद खुश हो रहे होंगे कि उन्होंने आखिर जनता को नचा कर रख दिया और स्वच्छ सरकार बनाने का असली प्रसाद चखा दिया है.

हर देश में हमेशा ऐसा हुआ है कि जब किसी विशेष नीति को ले कर कोई दल या नेता सत्ता में आया तो उस ने अर्थव्यवस्था पर पहला हाथ डाला और आम जनता का जीना दूभर हो गया. ऐसा हर राजनीतिक दल या नेता कहता रहा कि कुछ दिनों के कष्ट झेल लो, फिर सब ठीक हो जाएगा.

रूस में 1917 में जब श्रमिकों और किसानों की क्रांति हुई, तो ऐसा ही हुआ. कामधंधे बंद हो गए. खेत सूख गए. व्यापार ठप हो गए, भुखमरी बढ़ गई पर कम्युनिज्म फलनेफूलने लगा. चीन में माओत्से तुंग की लाल क्रांति के बाद यही हुआ और कभी लेट हंड्रेड फ्लावर्स ब्लूम तो कभी सांस्कृतिक क्रांति के जुमले परोस कर चीन की शक्ति को नष्ट किया गया.

अफ्रीका के अधिकांश देश जो यूरोप के अधीन थे, क्रांतियों के बाद दशकों तक भुखमरी, अकाल, गृहयुद्ध, अराजकता को भोगते रहे जबकि क्रांतियों के सूत्रधार लगभग तानाशाह बने रहे या उन्हें हटा कर कोई और तानाशाह बना. ऐसा ही दक्षिण अमेरिका में हुआ.

भारत में सांस्कृतिक क्रांति लाए जाने के नाम पर भ्रष्टाचार, कालेधन व हिंदूविरोधी नीतियों के खिलाफ सरकार का बनना तब बेहद सुखद लगा था पर अब पूरा देश प्रयोगशाला बन गया है और जनता पर तरहतरह के प्रयोग किए जा रहे हैं. एक तरफ वंदेमातरम, योग, भारत माता का गुणगान थोपा जा रहा है तो दूसरी ओर जीएसटी, कठोर कंपनी कानून, नोटबंदी, आधार नंबर का बंधन जबरन गले में लटकाए जा रहे हैं. आज आम व्यापारी ही नहीं, आम आदमी भी इन खानापूर्तियों को पूरा करने में लगा है. आर्थिक मोरचे पर प्रगति के नाम पर जो भी दिखावटी टोटके किए जा रहे हैं वे देश को भारी पड़ेंगे, यह अभी से दिख रहा है.

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