मनोरंजन की दुनिया की शख्सीयत आमिर खान ने खुली सभा में स्वीकार कर के कि वे बढ़ते कट्टरवाद और उस के परिणाम असहिष्णुता से चिंतित हैं और उन की पत्नी देश छोड़ने तक की बात कर रही है, देश के कट्टर अंधविश्वासी, छाती पीटने वाले व भगवा लाठी फटकारने वालों को चुनौती सी दी है. लोकसभा चुनावों में भारी जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी के छुटभैये समझ रहे थे कि 1971 के कांगे्रसी समाजवाद की तरह 2014 में हिंदू पोंगाशाही का युग 500-700 साल बाद आखिर लौट ही आया है.

आमिर खान जानापहचाना चेहरा है. उन के 4 शब्दों से जो तूफान मचा है वह दूसरों के 4000 शब्दों से भी नहीं मचता. वे सच कह रहे हैं, यह तो बाद के तूफान से साफ है कि यहां के पोंगापंथी सच सुनना ही नहीं चाहते. यह कोई नई बात नहीं है. यहां राम नाम या राधेकृष्ण इतना जोरशोर से बोला जाता है कि राम और कृष्ण के बारे में रामायण, महाभारत या भागवत पुराण से उद्धृत सच भी कह दो तो वैसा ही तूफान खड़ा हो जाता है और झूठ को इस कदर तरहतरह के शब्दों में लपेट कर फेंका जाता है कि सच गोबर के ढेर में दब कर, सिसक कर मर जाता है.

आमिर खान ने जो कहा वह देशभर में महसूस किया जा रहा है. मुसलिम ही नहीं, दलित, पिछड़े, आरक्षित सरकारी कर्मचारी, लेखक, कलाकार, विचारक, इतिहासकार देख रहे हैं कि देश की संस्थाओं पर पोंगापंथी का रंग पोता जा रहा है. देश की सोच पर अंकुश लगाया जा रहा है. लोकतंत्र की जान ‘विचारों की अभिव्यक्ति’ को कुचला जा रहा है. यह एक रात में होने वाला काम नहीं है और आम जनता को यह महसूस भी नहीं होता. पोंगापंथी पाखंडों से भ्रमित मध्यवर्ग अनजाने अपने पैरों पर जंजीरें बांध रहा है और भगवाई पाखंड की पाकिस्तान बनने की खीझ और आरक्षण को लागू करने की कुंठा के कारण आमिर खान के वक्तव्य, लालू की जीत, साहित्यकारों की सम्मानवापसी को आश्चर्य से देख रहा है. इस वर्ग को भ्रम है कि उस की प्रगति का राज घंटेघडि़यालों और उन के स्वामियों के हाथों में है. इस वर्ग ने अब तक जो भी पाया है, अपनी मेहनत से पाया है पर हैरानी की बात है कि वह इस का श्रेय  उस पूजापाठ को देता है जिस का धंधा चमकाने के लिए देश को बांटा जा रहा है या पाखंडविरोधियों का मुंह बंद किया जा रहा है.

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