आधार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल आंशिक सांत्वना देने वाला है. आधार पर आधारित परिचय पत्र देना सरकार का नागरिकों को एक सुविधा हो सकती है पर इसे हर काम से जोड़ देना एक ऐसा इलैक्ट्रौनिक चौकीदार तैयार कर देना है जो हर नागरिक की निजता व स्वतंत्रता पर आघात करता है. आधार निश्चित रूप से उसी तरह हर नागरिक को जुर्म कर चुका अपराधी मानता है जैसा हिंदू धर्म हर मानव को पापों का फल मानता है. सरकार ने आधार बनाया इसलिए है कि हरेक से पर्याप्त दक्षिणा ली जा सके और कोई भीड़ में छूट न जाए, ठीक पंडों की तरह.

पंडों की तरह नार्थब्लौक में बैठे महापंडितों ने देश भर में आधार पंडों की एक फौज छोड़ रखी है जो हर नागरिक को बाध्य कर रहे हैं कि आओ, दक्षिणा चढ़ाओ, लाइनों में खड़े हों, अपनी शपथ लो, सरकार के प्रति निष्ठावान रहने की गारंटी दो और कार्ड ले जाओ. सुप्रीम कोर्ट ने जो थोड़ी राहत दी है वह हरगिज काफी नहीं है और सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और पंडित सदा सही हैं वाला सिद्धांत अपनाया है. जिस संविधान का गुणगान हम करते हैं कि यह सरकार और शासकों के जुल्मों व अत्याचार के खिलाफ हमें बोलने व काम करने की स्वतंत्रता देती है, यह फैसला सरकार के विश्वासघात का साथ देता है.

आधार बैंक अकाउंटों से जुड़े यह बाध्यता सुप्रीम कोर्ट ने समाप्त कर दी है पर बैंक बिना आधार कार्ड के परिचय और बैंक चैक पूरा न मानें यह कैसे पता चलेगा. बैंक से ऋण लेने के समय याचक बना ग्राहक अपने कपड़े तक उतार देता है, भला आधार कार्ड देने से इंकार कैसे करेगा.

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