भारत में विदेशी पूंजी को बड़े पैमाने पर आने के लिए दरवाजे चौड़े करने का लाल गलीचा बिछा कर स्वागत करने की मांग बहुत की जाती है, मानो भारत को गरीबी, अंधविश्वास, सामाजिक जकड़न, निकम्मेपन,?भ्रष्टाचार, निर्दयी प्रशासन के दुर्गुणों से बचाने का यही एक उपाय है. हाल में एक अंगरेजी समाचारपत्र ने एस गोपालकृष्णन का लेख छापा. ये लेखक कौनफैडरेशन औफ इंडियन इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष और इन्फोसिस के वाइस चेयरमैन हैं.

अपने लेख में विदेशी पूंजी के लाभों के बारे में उन्होंने मात्र एक पैरा लिखा जिस का अनुवाद कुछ इस तरह होगा : ‘‘विदेशी कंपनियों से पूंजी बनाने के स्रोत मिलते हैं, वे देश की घरेलू बचत और पूंजी निर्माण में बढ़ रहे अंतर को पाटने में सहायक होती हैं, नौकरियां देती हैं और करों में योगदान देती हैं. प्रमुख विदेशी पूंजी तकनीक और कुशल प्रबंध के तौरतरीके उपलब्ध कराती हैं और भारतीय कंपनियों को वैश्विक कंपनियों से लेनदेन सिखाती है.’’

पूरे लेख में केवल इन कंपनियों के सही स्वागत किए जाने की बात है. सरकार को बारबार कहा गया है कि अड़चनें दूर करे, रोना रोया गया है कि विदेशी कंपनियां देश में आने से कतरा रही हैं क्योंकि यहां बीसियों तरह की अनुमतियां लेनी पड़ती हैं और हर की इजाजत के लिए महीनों लगते हैं.

मजेदार बात यह है कि पूरे लेख में न तो देशी कंपनियों को होने वाली दिक्कतों का जिक्र है और न यह कि ऊपर कही गई मांगों से भारत की गरीबी और निकम्मापन कैसे दूर होगा. विदेशी पूंजी की आखिर देश को जरूरत क्या है, जब?भारत पर्याप्त मात्रा में अपने खनिज, कृषि उत्पाद और अन्य चीजों के अलावा  श्रमिक निर्यात करता है.

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