देशी संस्कृति का रातदिन आलाप करने वाली सरकार ने बहुत से क्षेत्रों में शतप्रतिशत विदेशी पूंजी लगाने की इजाजत दे कर ठीक किया है या नहीं, यह कहना आसान नहीं. यह पक्का है कि देश में नई नौकरियां जरूरी हैं पर देश में उतनी पूंजी नहीं है कि नए कारखानों में पैसा लगाया जा सके. इसलिए अगर विदेशी लोग बाहर से पैसा ला कर लगाते हैं और उद्योग शुरू करते हैं तो नौकरियां मिलेंगी ही.

सवाल उठता है कि ये कंपनियां क्या बनाएंगी, क्या बेचेंगी और किसे बेचेंगी. देश की जनता के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं है तभी तो देश में पूंजी नहीं बन रही है और इसीलिए विदेशी आ रहे हैं. लेकिन ये विदेशी नौकरियां बांटने नहीं, मुनाफा कमाने आ रहे हैं और मुनाफे के लिए जो सामान बेचेंगे वह बिका तो उस जगह आजकल बिक रहा सामान, बिकना बंद हो जाएगा.

यानी होगा यह कि देशी कंपनियों का घटिया, पुरानी तकनीक पर आधारित तैयार माल बिकना बंद हो जाएगा और विदेशी कंपनियों का माल बिकेगा. इस से आर्थिक लाभ किसे होगा? या तो उन्हें जो बढि़या सामान चाहते हैं या उन्हें जो बनाते हैं. देशी कंपनियों के दरवाजे बंद हो जाएंगे, नौकरियां समाप्त हो जाएंगी.

विदेशी कंपनियों के पास इतना पैसा पड़ा है कि भारत के सारे उद्योगधंधे खरीद लें. अंबानी, टाटा, अदानी सरकारी संरक्षण के कारण टिके हैं. देशी कंपनियों के पास अपनी खोजों और तकनीक का अभाव है. उन के पास पुरानी मशीनें हैं, वे भी आयातित और आज भी घटिया काम कर रही हैं. अपनेअपने देशों में घटते बाजार को देख कर कितनी ही कंपनियां भारत में आना चाहती हैं और पैसा लगाना उन के लिए मुश्किल नहीं है, पर यह 1947 के पहले वाला हाल होगा जब हर अच्छे उद्योग अंगरेजों के थे. 1947 में भारत दुनिया का 7वां सब से बड़ा औद्योगिक देश था गुलामी के बावजूद. आज विश्व की तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था है तो विशाल जनसंख्या के कारण, अपनी कुशलता के कारण नहीं.

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