खाद्य सुरक्षा कानून सोनिया गांधी के लिए चाहे एक मैडल की तरह हो पर यह यही दर्शाता है कि देश अभी भी अफ्रीका के गएगुजरे देशों से बदतर है. अगर देश के भूखे लोगों की संख्या 82 करोड़ है तो यह कानून असल में सदियों की गलतियों का एक आईना है. इतना विशाल व उपजाऊ भूमि वाला देश 82 करोड़ लोगों को पैदा कर सकता है पर उन्हें उतना काम नहीं दिला सकता कि वे अपना पेट भर सकें. यह देश और समाज के लिए शर्म की बात है.

जब दुनिया के दूसरे देश अपने फालतू उत्पादन को नष्ट करने की तरकीबें निकाल रहे हैं, वहां की सरकारें अपने यहां नए कामगारों को बुलावा दे रही हैं तब हमारे यहां 1-2 नहीं, 80-82 करोड़ जीवित लोग लगभग इतने मृतप्राय हैं कि उन्हें 5 किलो अनाज 15 से 5 रुपए तक प्रतिमाह दिए जाने पर सोचना पड़े, कानून बनाना पड़े. सोनिया गांधी को मशक्कत करनी पड़े, इतनी कि वे बीमार तक हो जाएं, तो यह हमारी आजादी की पोल ही खोलता है.

हमारी आदत है कि हम अपनी सारी कमियों के लिए 1947 से पहले की अंगरेज सरकार को दोष दे देते हैं. भुखमरी के लिए दोषी अंगरेज नहीं, भारतीय प्रबंधक, व्यापारी, जमींदार, नौकरशाही और सामाजिक व्यवस्था है, जो हम मानने को तैयार ही नहीं. यह कानून केवल इतना स्पष्ट करता है कि हम कितने निष्ठुर व निकृष्ट प्रबंधक हैं कि देश में हर 4 में से 3 लोग भूखे हैं और हम अपने कमरे में डींगें हांक रहे हैं.

इस सस्ते अनाज के लिए केंद्र सरकार को प्रतिवर्ष लगभग 1.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे. बहुतों को यह भारी लग रहा है. यह रकम बड़ी है पर यह न भूलें कि इस में से अधिकांश रकम इन 82 करोड़ लोगों से ही छीनी गई है. हमारी सामाजिक, व्यापारिक व्यवस्था इतनी ढीली है कि मजदूर के हाथ में पैसा आता ही नहीं. हमारी सामाजिक व्यवस्था उसे कर्ज में डुबोए रखती है, जिस पर वह पेट काट कर भारी ब्याज देता है. इसी ब्याज पर फलफूल कर हमारा छोटा सा उच्च वर्ग व उच्च व मध्य वर्ग मौज उड़ाता है. प्रत्यक्ष रूप से चाहे यह 1 करोड़ 30 लाख रुपए इस छोटे वर्ग से कर लगा कर लिया गया हो पर इसे कमाया तो उस पिछड़े (शूद्र) और दलित (अछूत, अजातीय) वर्ग ने ही है.

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