भारतीय खाद्य निगम की पोल खोलने में इस बार अदालतें ही आगे आई हैं और आशा की जानी चाहिए कि वे हर श्रमिक को बेचारा, लुटा हुआ, शोषित, गरीब, असहाय मानने की गलती बंद कर देंगी. पिछले 50-60 सालों में अदालतों ने ऐसे सैकड़ों फैसले दिए हैं जिन में श्रमिकों को आसमान पर चढ़ाया गया है और इसी का नतीजा है कि निजी क्षेत्र के कारखानों के इलाकों में काम कम, लाल झंडे ज्यादा दिखते हैं, औद्योगिक क्षेत्र असल में कारखानों की कब्रगाह ज्यादा दिखते हैं.

कारखानों में श्रमिकों को लाखों की तनख्वाह मिलना कोई आश्चर्य नहीं है. भारतीय खाद्य निगम के लोडर को 4 लाख रुपए का मासिक वेतन मिलता है. यह देख कर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश चकित तो हुए होंगे पर उन्होंने अभी भी लोडरों की ऊपरी कमाई जोड़ी नहीं है, जो इस से कई गुना ज्यादा होती है.

इस निगम में श्रमिकों की दादागीरी और गुंडागीरी आम है और माल की लदाई व उतराई तो वे खुद करते भी नहीं हैं, अपने चेलोंचपाटों से कराते हैं जिन्हें निगम के भंडारगृहों में आने से कोई रोक नहीं सकता. यह निगम असल में एक बड़ा माफिया समूह है जो सरकारी पैसे का जम कर दुरुपयोग करता है और यह व्यवस्था सूदखोरों व जमाखोरों से भी ज्यादा खतरनाक साबित हुई है. किसान और आम आदमी का हाल गहरी खाई से गहरी दलदल में गिर जाने जैसा हुआ है.

श्रमिकों को अब सेवा बेचने वाला समझा जाना चाहिए, जैसे दुकानदार माल बेचता है वैसे ही श्रमिक अपना उत्पादन बेचता है. हर काम की कीमत का मूल्य बाजार पर छोड़ा जाना चाहिए और योग्य व मेहनती को ज्यादा कमाने का पूरा अवसर मिलना चाहिए. वेतन, आयु व पद के आधार पर नहीं, काम के आधार पर तय हो और प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत को सरकारी व निजी क्षेत्र दोनों में माना जाना चाहिए.

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