भारत के इतिहास के पुनर्लेखन की चेष्टा की जा रही है. यह तो होना ही था. हिंदुत्व के लिए जिन लोगों ने जम कर वर्षों काम किया है वे 2000 वर्षों की गुलामी, चमत्कारी अंधविश्वासों, समाज को विभाजित करने वाली वर्ण व्यवस्था और वितृष्णा भरे काम करने वाले देवीदेवताओं की बातों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं और यह साबित करने में जुटे हैं कि उन के धर्म की दुकान ही सर्वश्रेष्ठ है. उन के इस मिशन के लिए इतिहास का पुनर्लेखन जरूरी है. हमारे यहां बचपन से देवीदेवताओं के गौरवगान इस तरह पढ़ाए जाते हैं मानो वे हमारे पौराणिक ग्रंथों से नहीं आए, बल्कि उन्होंने हमारे देश को चलाने का बीड़ा उठा रखा है. पुस्तकों, उपन्यासों, बच्चों के कौमिक्सों, धारावाहिकों, फिल्मों आदि के जरिए उन की तसवीर दर्शायी जाती है मानो इस से अच्छा कहीं कुछ नहीं है.

इतिहास का पुनर्लेखन इस दृष्टि से जरूरी भी नहीं है क्योंकि हमारे यहां आम आदमियों को इतिहास का जो ज्ञान है वह पुस्तकालयों के मोटे ग्रंथों से नहीं, बल्कि सुनीसुनाई बातों, रामलीलाओं व कृष्णलीलाओं और मंदिरों में बने चित्रों से मिला है. इन सब में हिंदू धर्म का प्रचार ऐसे होता है जैसे लौटरी का होता है, ‘100 रुपए का टिकट खरीदो, अरबपति बन जाओ.’ सत्य तो सत्य रहेगा. इतिहास का पुनर्लेखन कर लेंगे तो भी किताबों में जो लिखा जा चुका है, वह मिट नहीं पाएगा. ये पुस्तकें दुनियाभर में फैली हैं. स्कूलों, कालेजों और पुस्तकालयों में नई किताबें लिखा कर पहुंचाई तो जा सकती हैं पर तथ्यों को छिपाया नहीं जा सकता.

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