चुनावों का दौर 16 मई को गिनती शुरू होने पर खत्म होगा और उस के बाद  कौन कैसे सरकार बनाएगा, यह विवाद शुरू हो जाएगा. अगर भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिल गया तो उस में खींचातानी शुरू हो जाएगी और वह चुनावों जैसी होगी. नरेंद्र मोदी के साथ दिक्कत यह है कि चुनाव उन्होंने लड़ा पर टिकट बांटे राजनाथ सिंह, वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह वगैरह ने, क्योंकि जब तक भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था, उन की गुजरात के अलावा कहीं और नहीं चल रही थी. ऐसे में जो जीतेंगे उन को अपने राज्य के नेता की बात माननी होगी.
यदि भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो सरकार बनाने का काम कई सप्ताह टलेगा. दोनों हालात में सरकार का विधिवत काम शुरू होतेहोते महीनों बीत जाएंगे.
जिस देश में कर के माध्यम से जनता से वसूला पैसा ज्यादातर सरकारी मशीन पर बरबाद किया जाता हो वहां मशीन की महीनों निकम्मे बैठने का लाइसैंस देना मूर्खता है. चुनाव असल में झटपट होने चाहिए ताकि एक सरकार जाए तो जल्द नई सरकार आ जाए. जब चुनाव प्रचार होता है तब सरकार का कार्य ढीला हो जाता है पर हमारे देश में आचारसंहिता के नाम पर काम महीनों पहले ठप कर दिया जाता है.
राजनीतिक अस्थिरता के साथ चुनाव प्रक्रिया भी अस्थिरता पैदा कर रही है जो गलत है. चुनाव जैसे भी हों, 6-7 दिनों में हो जाने चाहिए. 7 अप्रैल से 12 मई तक का लंबा चुनावी दौर देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही महंगा है. यह तो गरीबों के यहां शादी या मौत की तरह है जहां 30-40 दिन तक काम नहीं करने दिया जाता. एक तो विवाह या मौत का खर्च और ऊपर से रस्मों के चक्कर में कामधाम लंबे दौर तक ठप.
चुनाव आयोग अपना ब्राह्मणीपन छोड़े और जैसे भी हो चुनावों को फटाफट निबटाए. देश को बरबाद करने के लिए नेता और अफसर ही काफी हैं. इस कृत्य में चुनाव आयोग अपना योगदान न दें.

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