हर साल 12वीं कक्षा की परीक्षाओं के बाद पूरे देश के अखबार 98 से 100 प्रतिशत तक अंक लाने वाले विद्यार्थियों के फोटोग्राफों से भर जाते हैं. एक जमाना था जब 65 प्रतिशत या 70 प्रतिशत अंक मेधावी छात्रों के आते थे पर अब इतने प्रतिशत अंक लाने वाले उच्च पढ़ाई को अलविदा कहने को मजबूर हो सकते हैं. अब उन्हें मात्र पास माना जाता है, कोई भी उन्हें किसी भी कोर्स में दाखिला देने को तैयार नहीं है. मजेदार बात तो यह है कि 98 प्रतिशत अंक हासिल करने वाले को भी मनचाहे कालेज में मनचाहे कोर्स में प्रवेश नहीं मिलता क्योंकि हर स्तर पर इतने छात्र होते हैं कि गिनती 98, 99, 100 से नहीं 98.1, 98.2, 98.3 से शुरू होती है. इस में शक नहीं कि इतने अंक लाने वाले बेहद परिश्रमी व योग्य होते हैं पर क्या 80 प्रतिशत अंक लाने वाले बेवकूफ हैं? यह कैसी शिक्षा व्यवस्था है जो तय नहीं कर पा रही है कि 12वीं के अंक, जो बाद में जीवनभर एक मील का पत्थर बने रहते हैं, गले का बोझ हैं या पैडेस्टल, जिस पर चढ़ कर विजयी घोषित किया जाता है. 98-100 प्रतिशत अंक लाना कठिन है पर उस के बाद भी मुसीबतों का अंत नहीं है. दरअसल, मैडिकल व इंजीनियरिंग ही नहीं बहुत से और विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवेश पाने के लिए अलगअलग परीक्षाएं देनी होती हैं यानी जो मेहनत की थी और जो सफलता पाई, वह आधीअधूरी ही है.

और ज्यादा अफसोस की बात यह है कि किसी भी संस्थान, कालेज, विश्वविद्यालय में चले जाएं वहां की लाइबे्ररी खाली होगी, लैक्चर कक्षाओं में बहस न के बराबर होगी. कालेज फेस्ट में धूम होगी पर वादविवाद प्रतियोगिता में बैंच खाली होंगी. इन होशियार छात्रों को न ज्यादा लिखना आता है, न पढ़ना. किताबें, लेख, कहानियां, कविताएं लिखने में कहीं दूर, ये अतिमेधावी छात्र स्क्रीन के गुलाम हैं या रट्टूपीर. स्वतंत्र सोच इन की पहुंच से बाहर है. देश के विश्वविद्यालय रैगिंग की घटनाओं को तो पैदा करते हैं पर वे राजनीतिक चेतना के केंद्र हैं, ऐसा नहीं लगता. इतने अंक हासिल करने वाले विद्यार्थियों के ज्ञान का स्रोत गूगल का विकीपीडिया है या मटमैले कागज पर वहीं से चोरी कर छापा गया सामान्य ज्ञान जिस में आलोचना, समालोचना, परिवर्तन की चेष्टा, क्रांति, बदलाव, गायब हैं. भारत में हौंगकौंग, ट्यूनीशिया, मिस्र, न्यूयौर्क के युवाओं के आंदोलन जैसे नहीं हुए तो सिर्फ इसलिए कि सारे भारीभरकम विशाल भवनों में बसे संस्थान शिक्षा नहीं, रट्टूपीर पैदा कर रहे हैं जो किसी तरह लाखों रुपयों के पैकेज वाली एक अच्छी नौकरी चाहते हैं. 98-100 प्रतिशत लाने वाले समाज से कट गए हैं. उन्हें अंकों की इतनी फिक्र हो गई है कि भविष्य के लिए वे न विचारों की स्वतंत्रता का खयाल कर रहे हैं न रूढि़वादी समाज को हिलाने का, उन्हें सिर्फ पैकेज की चिंता है. और सुर्खियां यही बनती हैं कि किस विदेशी कंपनी ने किस युवक को कितने का पैकेज दिया. यह शिक्षा, यह सफलता, यह खर्च, यह योग्यता सब आत्मकेंद्रित हो गए हैं. सफल युवा आत्ममुग्ध हो कर अपनी और केवल अपने को देख रहा है. उस का लक्ष्य नए समाज का निर्माण नहीं, समाज सुधार नहीं, इतिहास, विज्ञान नहीं बल्कि केवल अंक है, चाहे प्रमाणपत्र पर या चैक पर.

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