शिक्षा संस्थानों व सरकारी नौकरियों में युवाओं की आरक्षण की चाहत हर पार्टी के लिए गले की हड्डी बन गई है. नौकरी के गिरते अवसरों से परेशान युवा एक बार फिर सरकारी नौकरियों के पीछे दौड़ रहे हैं पर वहां पहली बाधा पद के अनुकूल स्कूली या कालेजी शिक्षा की अनिवार्यता आड़े आ जाती है. दोनों जगहों पर पिछड़ी व निचली जातियों के युवा और ऊंची जातियों के युवा जिन में सदियों से सवर्ण माने गए पढ़ेलिखे व खातेपीते घरों के तो हैं ही, 1947 के बाद हुए भूमि सुधारों से जमीनमालिक बने तब के थोड़े कम पिछड़े घरों के युवा भी अब शामिल होने लगे हैं. नतीजा यह है कि सरकारी शिक्षा संस्थानों या सरकारी नौकरियों में लाखों को निराशा होने लगी है. जिन्हें आरक्षण नहीं मिला वे रोना रोते रहते हैं कि आरक्षण न होता तो वे अपने से कमतर के मुकाबले स्कूलकालेज या सरकारी दफ्तर में जगह पा जाते. उन का गुस्सा कहीं मराठा, कहीं जाट, कहीं पाटीदार, कहीं केषलिंगा तो कहीं किसी और जाति के नाम से दिख रहा है.

सड़कों पर भगवा दुपट्टा लपेटे युवाओं के जो हुजूम दिखने लगे हैं उन में ज्यादातर इसी नाराज वर्ग से हैं. वे धर्म के पैरोकार बन कर आरक्षण को समाप्त करने की जुगत में पूजापाठी बनने का ढोंग रच रहे हैं. वे शासकों को खुश करना चाहते हैं कि उन से ज्यादा बड़ा भक्त कोई नहीं है. वे, दाता, अब तो कालेज में सीट या सरकारी नौकरी का वर दे दो, की गुहार करते नजर आते हैं. ये युवा भटके ही नहीं, मूर्ख भी हैं. इन्हें नहीं मालूम कि सपनों के चमकीले पहाड़ को तोड़ने का लालच दे कर इन से लोगों के सिर तुड़वाए जा रहे हैं. एक राजनीतिक माफिया तैयार किया जा रहा है जिस का हिस्सा बन कर ये युवा अपनी पूरी जिंदगी स्वाह कर देंगे. आज तो ये मातापिता के या धमकियों से वसूले चंदे के पैसों से मोटरसाइकिलों पर नारे लगाते घूमते हैं और झंडे, लाउडस्पीकर, गाय, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रगान के नाम पर तोड़फोड़ करते हैं पर जैसे ही जरा बड़े होंगे तो इन के हाथों में न शिक्षा होगी, न नौकरी और न ही हुनर. बाइकों पर इन की जगह युवाओं की अगली खेप ले लेगी और बुढ़ाते नेता भी इन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगे.

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