दिल्ली हाईकोर्ट ने ‘पद्मावत’ फिल्म के सतीप्रथा को महामंडित करने के आरोप में दर्ज एक याचिका पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि याचिकाकर्ता को क्या दूसरी संगीन सामाजिक विकृतियां नहीं दिखाई दे रही हैं जो उस ने इस तरह की फालतू याचिका दर्ज की है. हमारे यहां न्यायालयों में सार्वजनिक मामलों की आड़ में जम कर जनहित याचिकाएं और प्राथमिकियां देशभर में दर्ज कराई जा रही हैं. खाली बैठेठाले वकील और आनंद लेने वाले उन के क्लाइंट बड़े नामों के खिलाफ याचिकाएं या प्राथमिकियां दर्ज करा देते हैं.

आधेअधूरे तथ्यों वाली ये याचिकाएं या प्राथमिकियां चाहे कितनी ही कमजोर क्यों न हों, लेकिन फिर भी ये फिल्म निर्माता, प्रसिद्ध व्यक्ति या लेखक, प्रकाशक, संपादक के लिए परेशानी खड़ी कर देती हैं. याचिकाकर्ता या शिकायतकर्ता तो अपने शहर में मामला दर्ज करता है पर जिसे सफाई देनी होती है उसे सैकड़ों मील से आना पड़ता है. कई बार वारंट, गैरजमानती वारंट तक जारी कर दिए जाते हैं. इस के चलते क्रिएटिव व्यक्ति अपना काम छोड़ता है जबकि निठल्ला ठट्ठा मार कर हंसता है.

अफसोस यह है कि अदालतों में इस तरह के ज्यादातर मामलों में फैसला 10-15 वर्षों में आता है और इतने साल बाद यदि मामला खारिज हो तो शिकायतकर्ता का कुछ नहीं बिगड़ता. आपराधिक प्राथमिकी वाले शिकायतकर्ता शुरू में ही गायब हो जाते हैं या किसी ऐरेगैरे वकील पर छोड़ देते हैं. वहीं, दूसरे पक्ष को बारबार अदालत में सिर्फ हाजिरी के लिए खड़ा होना पड़ता है.

यह कहना तो सही है कि न्याय मिलता है पर कानून और अदालत के साथ खिलवाड़ करने वाले को क्या उसी मामले में वही न्यायालय सजा देता है? आमतौर पर न्यायालय मामला खारिज करते हुए कानून का पहिया चलाने वाले को कोई दंड नहीं देता. आजकल कभीकभार 20-25 हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाने लगा है पर यदि वह व्यक्ति न दे तो बहुत ही कम नियम हैं उस से पैसा वसूलने के. जिसे जुर्माने का पैसा मिलना होता है वह वसूलने के लिए और खर्च करने को तैयार नहीं होता.

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