भारतीय युवाओं का अमेरिकी सपना अब धीरेधीरे टूट रहा है. जिन मूल भारतीयों को अमेरिकी नागरिकता मिल चुकी है उन्हें तो खैर कुछ नहीं हो रहा पर जिन्हें अमेरिका की नागरिकता नहीं मिली और एच-1-बी वीजा पर सालों से वहां कार्य कर रहे हैं उन का जीवनस्तर खतरे में है. इन इमीग्रैंटों को 2015 में बराक ओबामा ने तोहफे में पति या पत्नी के होने पर उन्हें भी अमेरिका में काम करने की टैंपरेरी इजाजत दे दी थी. नतीजतन, इन भारतीयों की आय दोगुनी हो गई थी.

पर जिन कारणों से नरेंद्र मोदी को भारत में जरूरत से ज्यादा वाहवाही मिली वही अमेरिका में मौजूद हैं. अमेरिका का गोरों का एक संपन्न वर्ग अपने को अमेरिका का पुश्तैनी मालिक समझता है और कालों, भूरों, पीलों, एशियाइयों, अफ्रीकियों,  लैटिनों आदि को गुलाम मानता है. यह वर्ग कहता है कि ये सब लोग अमेरिका आएं, पर न बराबरी मांगें, न सुविधाएं मांगे. वे केवल सेवा करें और जब सेवा करने लायक न रहें तो अपने मूल देश चले जाएं.

जैसे भारतीय सवर्णों ने जम कर हल्ला मचा कर वोटरों को भ्रमित किया, वैसे ही गोरे कट्टरों ने अमेरिकियों को या तो डरा दिया या बहका दिया और अल्पमत में होते हुए भी डोनाल्ड ट्रंप को जितवा दिया जो अब एच-1-बी वीजा के पर कतरने को उतारू है. अब एच-1-बी वीजा की संख्या ही कम नहीं हो रही, टैंपरेरी वीजा की सहूलियत खत्म भी की जा रही है. ऐसे में  हजारों पत्नियां और सैकड़ों पति अब नौकरी खो बैठेंगे.

अमेरिका अपने नागरिकों की बेरोजगारी का दोष इन बाहरी लोगों पर मढ़ रहा है ठीक वैसे ही जैसे भारत में ऊंची जातियां आरक्षण को योग्यता का हनन करने का दोषी मान रही हैं. अब अमेरिका जाने का सपना ही नहीं टूट रहा है, बल्कि जो अमेरिका में घर बना कर वर्षों से रह रहे हैं उन्हें लग रहा है कि उन्हें गंदे, बदबूदार, पिछड़े, भीड़भाड़ वाले देश में लौटना पड़ेगा जहां न नौकरियां है न इज्जत.

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