इंदिरा गांधी के युग में कई वर्षों तक उच्च व सर्वोच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियां कानून मंत्री ही करते थे और स्वाभाविक है कि इन पर इंदिरा गांधी की मुहर होती थी. धीरेधीरे सुप्रीम कोर्ट ने यह अधिकार अपने हाथों में ले लिया, क्योंकि इन नियुक्तियों में सरकारी पक्ष का समर्थन करने वाले ही ज्यादा जज होते थे. यह बात दूसरी कि पहले के समर्थक नियुक्ति के बाद आमतौर पर स्वतंत्र हो जाते और सरकार के विरुद्घ फैसले लेने से हिचकते नहीं थे.

अब सुप्रीम कोर्ट की खुद की नियुक्तियों पर सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने नरेंद्र मोदी सरकार के इस अधिकार को वापस लेने की चेष्टा पर पानी फेर दिया है. सरकार के समर्थक सुप्रीम कोर्ट व उच्च न्यायालयों में कोलेजियम द्वारा की गई नियुक्तियों में दोष निकालने में लग गए हैं. कर्नाटक के एक जज न्यायाधीश जयंत पटेल का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में कर देने के सवाल पर विवाद को ले कर इस सर्कल में खासा हल्ला मच रहा है.

आज जनता को इस विवाद से लंबाचौड़ा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि यह खेल दरबारियों की अपनी राजनीति का है और छनछना कर जब फैसलों का असर आम नागरिक तक पहुंचता है तो उसे लगता है कि फैसला तो कहीं के सरकारी अधिकारी का है. वह दोष नेता या अधिकारी को देता है, सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट को नहीं.

पर देश की राजनीति को दिशा देने में यह उठापटक बहुत गंभीर है. सर्वोच्च न्यायालय ने जब से नियुक्तियां अपने हाथों में ली हैं, सुप्रीम कोर्ट में सरकार समर्थक जजों की कमी हो गई है और नतीजा है कि प्राइवेसी यानी कि निजता के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक स्वतंत्रताओं की एक नई व्याख्या कर डाली है जो कट्टरपंथी सरकार के गले की हड्डी बन गई है.

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