सत्ता में आने के बाद से ही नहीं, सत्ता में आने से बहुत पहले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विभिन्न घटकों के नेता एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना करते रहते थे जहां सुख, चैन, अमन, शांति, प्रगति हो. यह सपना लगभग हर देश के राजनीतिक विचारकों का रहा है और इस के ग्राहक भी बहुत रहे हैं जो कल की पीढि़यों को सपनों का संसार देने के लिए वर्तमान को न्यौछावर करने को तैयार थे और अंतिम बलिदान, मृत्यु को भी गले लगाने को तैयार थे. जो पूरी तरह व्यावहारिक राजनीति से परिचित नहीं थे उन की तो छोडि़ए जो जानते हैं और समझते हैं कि आज तक इस प्रकार का यूरोपियन, काल्पनिक, समाज या राष्ट्र नहीं बन पाया है, संघ के लिए बहुत कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहे हैं और जब उन के पास सत्ता है, मजबूती है, फैसले लेने की शक्ति है, इस प्रयोग को करने में आमादा हैं.

संघ जिस वाद की वकालत करता है उसे वह राष्ट्रवाद के चोले में छिपा कर रखता है क्योंकि वह असल में हिंदू राष्ट्र है जिस पर भारतीय राष्ट्रवाद का लेप लगा है. यह हिंदू राष्ट्रवाद भी 80 प्रतिशत जनता का अपना नहीं है भले ही 80 प्रतिशत जनता अपने को हिंदू मानती हो. यह पौराणिक हिंदूवाद है जिस में असली शक्ति स्मृतियों के अनुसार ऋषिमुनियों, राजपुरोहितों के पास हो, जो शास्त्रों का मनन मात्र करते हों और उन का कल्याण से अर्थ भजनवाद या तपस्या करना भर हो. ये वे लोग थे जो आमतौर पर हथियार नहीं उठाते थे, व्यापार नहीं करते थे, खेती नहीं करते थे. इन की चाह थी कि राजा या शासक कैसे भी इन्हें आश्रमों में मुफ्त बिना काम किए रहने की इजाजत व सुविधा दे और जनता को दान सहित आदर देने को मजबूर करे.

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