मेक इन इंडिया का स्लोगन अभी हवा में ही था कि नरेंद्र मोदी ने नया गुब्बारा स्किल डैवलपमैंट का छोड़ दिया है. नई सरकार की यह खासीयत तो है कि हर थोड़े दिन बाद कोई नया नारा देशभर के इश्तिहारों की जगह पर चमकने लगता है. सवाल यह है कि क्या यह आज की प्रौढ़ पीढ़ी या युवा पीढ़ी को कुछ दे पा रहा है? मेक इन इंडिया कहना बड़ा आसान है पर इसे जमीन पर उतारना कठिन है. क्या मेक करें, पहला सवाल तो यही है. दुनिया भर में जहां भी भारी उद्योग लगे हैं, ज्यादातर ने या तो नई चीजों का आविष्कार किया है या पुरानी चीजों को नए तरीके से बनाने के ढंग ढूंढ़े हैं. यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान और कोरिया ने इसी तरह उन्नति की है.

हमारे यहां तो नए के प्रति गहरी हेट है. हम तो पुरातनवादी हैं जो योग को, वंदेमातरम को, यज्ञहवन को, जाति को, पूजापाठ को, कुंडली और औजार पूजन को पहला काम मानते हैं.

मेक तो हम तब करें न जब हम समझें कि यह बनाने का काम हमें खुद करना है. हम अपना मन ही मेक यानी बना नहीं पा रहे कि बनाने का काम हमारा है ग्रहों का और पूजापाठ का नहीं.

इसी तरह स्किल का काम हम ने उन दलित शूद्रों को दे रखा है जिन्हें मूलत: पढ़नेलिखने का मौलिक स्वाभाविक अधिकार अभी तक नहीं मिल पाया है. वे अगर आरक्षण के नाम पर कुछ पा सके हैं तो सरकारी नौकरियां, जहां न कुछ मेक किया जाता है और न ही स्किल की जरूरत होती है. कामगारों की जो जमात सरकार में नहीं घुस पाई अब भी सिर्फ पुराने पेचकश लिए घूम रही है. यहां तक कि इस मेक इन इंडिया व स्किल का प्रचार करने वाले जो विज्ञापन बन रहे हैं उन में वे औजार दिखाए जा रहे हैं जिन की आज के औद्योगिक युग में कोई जगह है ही नहीं.

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