जिस तरह राममंदिर, शाहबानो प्रकरण, आरक्षण विरोध, गोपूजा, दलित विरोध, इतिहास का पुनर्लेखन आदि मसले भारतीय समाज को जोड़ने वाली गोंद को पतला कर रहे हैं, वैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कश्मीर मुद्दे के मुकाबले बलूचिस्तान के मुद्दे को उठाना तीनों देशों यानी भारत, पाकिस्तान, चीन के बीच थोड़ेबहुत सुधरे संबंधों को फिर से खराब कर रहा है.

मई 2014 में शपथग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री व अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित कर नरेंद्र मोदी ने अच्छी शुरुआत की थी. जिस तरह चीन के प्रधानमंत्री शी जिनपिंग का अहमदाबाद में साबरमती के किनारे स्वागत किया था और जिस तरह वे अचानक पाकिस्तान जा कर नवाज शरीफ की पोती की शादी में शरीक हुए थे, उस से लगा था कि तीनों देशों में अगर दोस्ती नहीं, तो कम से कम बैरभाव कम होगा.

बलूचिस्तान के मामले में पाकिस्तान उतना ही संवेदनशील है जितना भारत कश्मीर के अपने आंतरिक मामले में दखल न सहन करने को तत्पर है. बलूचिस्तान के लोगों को इसलामाबाद से चाहे जो शिकायत हो, वह कश्मीर मामले का हल नहीं हो सकता. पाकिस्तान कभी भी कश्मीर के मामले पर चुप सिर्फ इसलिए नहीं बैठेगा कि भारत बलूचिस्तान का मोरचा न खोल दे. वैसे भी, बलूचिस्तान से भारत की सीमा तो मिलती नहीं कि हम सिवा बयानों के ज्यादा कुछ कर सकें.

चीन बलूचिस्तान के मामले को ले कर ज्यादा गंभीर है और यह मुद्दा पाकिस्तान-चीन मैत्री को और पक्का कर देगा. चीन पाकिस्तान के जरिए व्यापार का सुगम रास्ता वैसे ही खोज रहा है. बलूचिस्तान का मामला पाकिस्तान को सदा के लिए चीन की झोली में डाल सकता है. बलूचिस्तानी कूटनीति देश के लिए उलटी पड़ सकती है.

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