सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के आंतरिक मामलों को सार्वजनिक संपत्ति मान कर अपने हस्तक्षेप और अपरोक्ष सरकारी नियंत्रण के रास्ते तो खोल दिए पर उस का यह कदम निरर्थक और निरुद्देश्य है. क्रिकेट हम भारतीयों के लिए एक नशा बन गया है. इस के विज्ञापन पर हजारों, करोड़ों खर्च होते हैं और इस पर लाखों, करोड़ों का सट्टा लगता है. वहीं, देशवासियों के साल के बीसियों घंटे इसी पर खर्च होते हैं. जिस चीज पर इतना खर्च हो, जिस की इतनी चिंता हो, उस में अदालतों से या सरकार के माध्यम से नियंत्रण होना चाहिए, यह सोच अपनेआप में गलत है. क्रिकेट में लोगों की जान बसती है पर फिर भी यह खेल मात्र है जो दुनिया के मुश्किल से 15 देशों का खेल है और बाकी देशों में इस खेल को वह वरीयता नहीं मिलती जो हमारे यहां मिलती है.

सभी देशों के अपने लोकप्रिय खेल हैं पर केवल कम्युनिस्ट खेमों के देशों को छोड़ कर सभी जगह खेल आम लोगों का अपना मामला रहा है और सरकार या अदालत केवल तभी दखल देते हैं जब उस में कोई आपसी विवाद हो. खेलों को छूट दी जाए, थोड़ाबहुत प्रोत्साहन दिया जाए. उन को सुविधाएं दे दी जाएं यह तो समझा जा सकता है पर सरकारें या अदालतें उन्हें अपने कब्जे में ले कर उन को कंट्रोल करने लगें, यह गलत है. जनरुचि के बहुत से मामले हैं जिन में जनता को शिकायतें होती हैं पर उन से सरकार पल्ला झाड़ लेती है. जो सरकार लोगों को सही व साफ सड़कें, सही सुरक्षा, सही चिकित्सा सुविधा, सही शिक्षा, सही वातावरण, सही न्याय मुहैया न करा सके उस सरकारी या अदालती शक्ति को क्रिकेट जैसे खेल पर नियंत्रण करने का कोई हक नहीं है.

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