परमाणु सामग्री को बेचने वाले देशों में शामिल होने के लिए इस बार नरेंद्र मोदी ने एड़ी से चोटी का जोर लगा दिया, पर चीन से बुरी तरह मुंह की खाई. चीन अड़ा रहा कि वे देश, जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इस न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप के सदस्य नहीं बन सकते और अपने देश में बनाए गए परमाणु उपकरण दूसरों को नहीं बेच सकेंगे. नरेंद्र मोदी ने इस मामले को इस ढंग से लिया मानो सोमनाथ का मंदिर बनवाना हो और बनवाना है तो बनवाना ही है. उन्होंने न केवल पहले कई देशों की यात्रा की, बल्कि अमेरिका को पूरी तरह मना लिया. पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और पिछले भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ हुए समझौते के बाद यह काम कठिन न था और अमेरिका खुद चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है, फिर भी अमेरिका हजारों टैलीफोन कालों के बावजूद दक्षिणी कोरिया में जमा हुए देशों में बहुतों को मना लेने के बाद भी चीन को टस से मस न कर पाया.

परमाणु सामग्री बेचने का हक पाने के बाद देश का यह उद्योग बहुत पनप सकता है. और क्षेत्रों में हम चाहे कैसे भी हों, परमाणु और स्पेस टैक्नोलौजी में हमारे वैज्ञानिक दुनिया के वैज्ञानिकों का मुकाबला कर रहे हैं. हालांकि उत्तरी कोरिया, दक्षिणी अफ्रीका, इजरायल, पाकिस्तान, ईरान आदि के पास भी यह तकनीक है, पर इन से दुनिया के दूसरे देश डरते हैं. लेकिन भारत पर अभी सब को भरोसा है कि वह कभी आक्रामक न होगा और अपनी सरहदें पार न करेगा. फिर भी चीन ने भारत को इस विशिष्ट ग्रुप में घुसने न दे कर साबित कर दिया है कि विदेश नीति नाचगानों और गर्मजोशी के साथ झप्पी मारने पर निर्धारित नहीं होती, बल्कि अपने हितों पर निर्भर होती है. चीन का हित यह है कि भारत को न परमाणु सामग्री मिले और न वह बेच पाए, क्योंकि चीन के दूसरे सब से बड़े पड़ोसी भारत से उस का सीमा विवाद गहरा है.

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