कर्नाटक में एक मंच पर मायावती, अखिलेश यादव, सोनिया गांधी, सीताराम येचुरी, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल को देख कर भाजपा को जो धक्का पहुंचा होगा वह 19 मई को रोतेकलपते बीएस येदियुरप्पा को कर्नाटक विधानसभा में देखने से ज्यादा संगीन है. कर्नाटक का हाथ से निकल जाना एक बात है, विरोधी जमा हो जाएं यह बात दूसरी. बड़ी बात है कि ये सब दल जातियों पर आधारित हैं. इन के पास अपनेअपने निचली व पिछड़ी जातियों के वोट बैंक हैं जिन्हें हिंदू हिसाब से अछूत व शूद्र कहा जाता है. इन्हें एकसाथ देख कर एक नए समाज की पहली नींव डलना कहा जा सकता है. यह आज महसूस नहीं हो रहा क्योंकि इस सारे समारोह को सिर्फ कर्नाटक की एक नई सरकार के बनने की तरह पेश किया गया है.

मुट्ठीभर ऊंची जातियों ने सदियों से निचलों और पिछड़ों पर सामाजिक कहर ढा कर अपना ही नुकसान किया है. उन्हें लगता रहा है कि धर्म की चाशनी के सहारे उन्हें बिन पैसे के गुलाम मिलते रहे हैं पर असल में उन्हें सदा खुद से नाराज, बीमार, कमजोर, भूखों के साथ रहना पड़ा जिस का फर्क उन की खुद की अमीरी पर पड़ा. उन से काम तो कराया गया पर वह काम बहुत अच्छा न था क्योंकि वे पढ़ेलिखे समझदार न थे. आज निचलेपिछड़े समझदार हो चले हैं. हां, उन में भी धार्मिक कट्टरता भरी है पर उन्हें समझ आ रहा है कि ऊंचों के देवताओं के दासों या अवैध बच्चों को पूज कर वे कभी ऊंचों के बराबर नहीं बैठ पाएंगे. उन्होंने सोचा था कि नरेंद्र मोदी भाजपा को नया रंग देंगे, बराबरी का घोल पिलाएंगे, पैसा दिलाएंगे, साफ सरकार देंगे पर नरेंद्र मोदी तो खुद ही कट्टरपंथी सोच वालों से घिरे हैं. वे जितना दम भर लें कि फैसले वे लेते हैं पर उन के फैसलों पर कहीं और मुहर लगती है.

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