सत्ता में आने के बाद आमतौर पर हर कोई अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए जनता को पहुंचाए फायदों को गिनाना शुरू कर देता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा दे कर जीती पर डेढ़ साल में उस ने एक भी ऐसा कदम उठाया हो जिस से जनता के अधिकार बढ़े हों, शासकों के कम हुए हों, ऐसा लगता नहीं है. उलटे डिजिटलाइजेशन के नाम पर मात्र साधारण लोगों को ऐसे लोगों के सामने अपना रहस्य खोलना पड़ रहा है जो कंप्यूटर चलाना जानते हैं. इस सरकार ने धड़ाधड़ औनलाइन फाइलिंग शुरू की है और सरल के बजाय स्थूल पर विश्वास किया है.

ऐसे में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का दावा कि वे तो आईएएस के खिलाफ हैं, सुखद है. भारतीय प्रशासनिक सेवा अपने को देश का स्टीलफ्रेम कहती है, उसे यह विश्वास है कि उसी की विशेषता के कारण देश आज एक है और नेताओं को तानाशाही करने का मौका नहीं मिल रहा.

असल में देश को कोई गरीब और गुलाम बनाए रख रहा है तो वह नेतागीरी नहीं, अफसरगीरी है जो हर कोने पर जहरीले सांप की तरह कुंडली मारे बैठी है. नेताओं ने तो कब की हार मान ली कि वे उस का कुछ बिगाड़ नहीं सकते और उन के हित में है कि वे उस के साथ काम करें, उस के खिलाफ नहीं.

हर नेता के घर के आगे सुबह से जो भीड़ लगती है उस में से 90 प्रतिशत लोग नेता से पैसा, नौकरी या सुविधा मांगने नहीं आते. वे नेताओं से अफसरों को सिर्फ यह कहलवाना चाहते हैं कि उन का कानूनी काम कर दिया जाए. नौकरशाही गैरकानूनी तो छोडि़ए, कानूनी काम भी तब तक नहीं करती जब तक उस की कीमत न मिल जाए, और यह कानून किस चिडि़या का नाम है. देश में बने कानूनों में से 90 प्रतिशत बेकार के हैं. वे सिर्फ सरकार का हक बढ़ाते हैं. मैगी इस का एक उदाहरण है, 2-3 अफसरों ने कैसे करोड़ों रुपयों का धंधा बंद करवा दिया जबकि यह मामला ग्राहक और उत्पादक के बीच का था.

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