अपना मकान हो, यह सपना सब देखते हैं पर देशभर में बिल्डरों से मकान खरीदना जोखिमभरा काम है. यह लौटरी के महंगे टिकट लेने की तरह का कदम हो गया है जिस में पैसे तो लगाने पड़ते हैं पर मकान मिले या न मिले, कुछ नहीं कहा जा सकता. दिल्ली के आसपास नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम आदि में सैकड़ों बिल्डरों ने मकान बनाने के वादे कर पैसे तो ले लिए पर जो काम 2 वर्षों में होना चाहिए था, 5-7 वर्षों में भी नहीं किया.

बहुत से लोगों ने इस लालच में अपनी जमापूंजी लगाई कि बाद में या तो रहने को मिलेगा या महंगे में बेच कर मोटा पैसा मिलेगा. बहुतों ने कर्ज भी लिया और वे किस्तें भी भर रहे हैं और किराए के मकान में भी रह रहे हैं. अदालतें आजकल बिल्डरों पर सख्त हो रही हैं पर सच यह है कि न केवल बिल्डर, सरकारें और जनता भी दोषी हैं.

कई मामलों में सरकार द्वारा किसानों की अधिग्रहित जमीन पर मकान बन रहे हैं जिसे बिल्डरों ने महंगे दामों पर लिया था. पर किसानों ने मुआवजों आदि पर मुकदमा किया तो मकान बनाने का काम रुक गया. कुछ मामलों में फ्लैट या प्लौट खरीदार मुकदमे ठोक देते हैं कि जो वादा किया था उस से ज्यादा फ्लैटप्लौट बन रहे हैं और काम रुक जाता है. कई दफा पर्यावरण वाले अनुमति नहीं देते.

कई बार आसपड़ोस के रहने वाले बिल्डर का काम रोक देते हैं इसलिए कि उन के नए प्लौटोंफ्लैटों से उन की सुविधाएं कम हो जाएंगी. जिन्होंने फ्लैटप्लौट बुक कराए थे, उन में से कुछ पूरा पैसा एडवांस न दें तो बिल्डरों के पास पैसे की कमी हो जाती है और काम रुक जाता है. एक बिल्डर एक जगह गंभीर रूप से फंस जाए तो नई जगह उस का काम चल भी रहा हो तो वह धीमा हो जाता है या रुक जाता है. मुकदमों के निबटने में लगने वाले समय व पैसे के कारण भी काम रुक जाता है. आजकल अदालतें मामले हाथ में तो ले लेती हैं पर व्यावहारिकता को ताक पर रख कर आदेश जारी कर देती हैं. लेकिन आदेशों से फ्लैट तो नहीं उपज सकते.

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