चुनावी मंच पर खड़े हो कर कहना आसान है कि न खाऊंगा न खाने दूंगा पर जब देश में हरकोई खाने और निगलने को नहीं हड़पने को तैयार बैठा हो तो कैसा भी नेता हो बेईमानियां तो होंगी ही. नेताओं और अफसरों की बेईमानियां तो देश में कम नहीं हुईं ऊपर से बिल्डरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों आदि की एक नई जमात पैदा हो गई है, जिस ने बेरहमी से बैंकों में आम गरीब जनता का पैसा ठीक उसी तरह हड़प लिया जैसे मृत्युभोज पर पंडे हड़पते हैं, जबकि मृतक के घर वाले हिसाब लगा रहे होते हैं कि कल से घर कैसे चलेगा.

पिछले 4 सालों में जब से नई सरकार कालाबाजारियों, कानून से बचने वालों, धनपतियों, बेईमानों को दुरुस्त करने के नाम पर आई है सरकारी व गैरसरकारी बैंकों ने 3,16,500 करोड़ रुपए की लेनदारी अपने खाते से हटा दी, क्योंकि पैसा वसूल करना असंभव था. इन्हीं

4 सालों में बैंकों के ऐसे कर्जों जिन्हें वसूलना नामुमकिन था बढ़ कर 7,70,000 करोड़ रुपए हो गए. यह पैसा जो कर्ज लेने वाले खा गए किस का है? यह पैसा आम छोटे खातेदारों का है.

यह विडंबना ही है कि इसी दौरान बारबार कहा गया कि कैशलैस अर्थव्यवस्था बनाई जाएगी और सभी लेनदेन बैंकों से होंगे. बैंकों तक जाना हरेक के लिए जरूरी बना दिया गया. बैंक अपनी मनमानी करने लगे हैं. क्रैडिट कार्ड वाले इस कैशलैस का फायदा उठा कर धन्ना सेठों, साहूकारों से भी कई गुना ज्यादा ब्याज वसूलने लगे हैं.

जब पहुंच वाले व्यापारी लाखोंकरोड़ों हड़प रहे थे, मंचों पर भाषणों का अमृत पिलाया जा रहा था कि अब सुख आएगा, शांति आएगी. सुख के पत्ते आए पर ज्वालामुखी फटने के बाद जलाने वाले लावे के साथ. नोटबंदी और जीएसटी को इन्हीं लाखोंकरोड़ों को वसूलने के लिए लाया गया पर दोनों से फायदा केवल बैंकों, सरकार को हुआ पर इस पैसे को भी खा लिया गया. खाने वाले कुछ बहुचर्चित तो देश छोड़ कर भाग गए पर जिन्हें अपने देश से प्रेम है या जो गरीब हैं वे भाग नहीं सकते, उस गुप्त अत्याचार को सहने को मजबूर हैं.

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