लखनऊ में 6 जुलाई को जिलाधिकारी के निर्देश पर सिटी मजिस्ट्रेट ने चारबाग इलाके में कई ऐसे होटलों को बंद कर दिया जिन्हें सरकारी भाषा में अवैध कहा जाता है. लोगों का व्यापार तो ठप हुआ ही बीसियों लोग जिन का सामान कमरों में था रह गया और बाकी को अपना सामान उठा कर दूसरे होटल ढूंढ़ने पड़े.

इन होटलों से किसी को शिकायत न थी. यहां कोई ऐसा काम नहीं हो रहा था जिस से किसी को परेशानी हो रही हो. सरकारी बहाने थे कि फायर नो ओब्जैक्शन सर्टिफिकेट नहीं लिया गया, जीने संकरे थे, गलियां तंग थीं, ग्राहकों की ऐंट्री अच्छी नहीं थी.

इस तरह के छापे देशभर में पड़ते रहते हैं और सरकार अपनी पीठ थपथपाती रहती है कि उस ने महान काम किया. असल में यह कोरा जनविरोधी काम है और इस के पीछे रिश्वतखोरी को बढ़ावा देने की नीयत है. सरकार ने हर तरह के काम पर बीसियों कानून बना रखे हैं, तरहतरह की इजाजतें लेनी होती हैं. सरकारी दफ्तरों में बैठे बाबू इंजीनियर भी बन जाते हैं, इकोनौमिस्ट भी, फायर फाइटर भी और समाज के ठेकेदार भी. कानून ने प्रमाणपत्र देने के नाम पर अंधेरगर्दी मचा रखी है.

छोटे होटलों की जरूरत बहुत सख्त है. जो लोग खुद 3000 रुपए महीने के कमरे में रहते हैं, वे दूसरे शहर में जाने पर क्या सारी अनुमतियों वाले होटल में जाने लायक पैसे दे सकते हैं? वे घर जैसा वातावरण पा कर खुश हैं. वे 200 रुपए रोज का खर्च दे कर भी कसमसाते हैं. रही बात आग से बचाव की तो किस घर के पास फायर नो ओब्जैक्शन सर्टिफिकेट है? आग तो कहीं भी लग सकती?है, फिर होटलों पर ही क्यों गाज गिरे? इसलिए कि होटल को बंद करने की, सील करने की धमकी दे कर पैसे वसूले जा सकते हैं.

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