मेरा बेटा 3 महीने का था. वह इतना रोता था कि मैं घर का कोई काम नहीं कर पाती थी, यहां तक कि टाइम पर खाना भी नहीं खा पाती थी. किसी प्रकार पति को टिफिन बना कर दे देती थी. उन के जाने के बाद तो मैं बेटे को ही ले कर बैठी रहती थी.

बेटे के रोने की वजह से मैं बहुत परेशान रहती. डाक्टर को दिखा चुकी थी. फिर भी उस का रोना बंद नहीं हुआ. मेरे पड़ोस में एक वृद्ध महिला रहने आईं. उन की उम्र लगभग 70 वर्ष की रही होगी. लेकिन वे बहुत सेहतमंद थीं. वे अकेली रहती थीं. वे दूसरों के घर खाना पकाने जाया करती थीं और भी कई काम करती थीं.

मुझे परेशान देख कर वे मेरे काम में भी मदद कर देतीं, यहां तक कि वे मेरे खानेपीने का भी खयाल रखती थीं. कभीकभी वे मेरे बेटे को खिलातींबुलातीं जिस से मैं घर का काम निबटा सकूं. कुछ समय बाद वे अपनी बेटी के घर चली गईं किंतु उन का निस्वार्थ प्रेम हमें याद आता रहता है.

शीला देवी विश्वकर्मा

*

मेरी तबीयत अचानक बहुत खराब हो गईर् थी, जिस के कारण मुझे नर्सिंग होम में रहना पड़ा. इस दौरान मुझे देखने व हालचाल पूछने के लिए परिवार के लोग तथा अन्य परिचित वहां आते थे. एक दिन हमारी जानपहचान की एक महिला वहां आईं. कमजोरी के कारण मेरी आंखें बंद थीं जिस से उन को लगा कि मैं सो रही हूं. तब उन्होंने पास बैठी मेरी बहू से बातचीत करनी शुरू कर दी.

इसी क्रम में उन्होंने मेरी उम्र पूछी. जब बहू ने बताया कि मैं 71 वर्ष की हूं, तो वे बोल पड़ीं, ‘‘अरे, फिर तो ये अपनी पूरी उम्र जी लीं और और कितना जिएंगी? अपनी आंखों के सामने सबकुछ देखसुन चुकी हैं. इंसान को और क्या चाहिए. बीमार हो कर बिस्तर पर पड़ जाओ, क्या अच्छा है. इन्हें तो अब घर ले जाओ, डाक्टरों और अस्पताल का चक्कर छोड़ दो. अब इन्हें घर में ही इस जीवन से मुक्ति मिले.’’

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