भड़कने के माने

केंद्रीय मंत्री बनने के बाद शांत रहने की कला में माहिर हो गए रामविलास पासवान आखिरकार जीतनराम मांझी पर बरस ही पड़े. और इस तरह बरसे कि मांझी इतना सहम गए कि माफी सी मांग बैठे. बिहार के चुनाव में जातियों के वोट हर कोई गिना रहा है. जातियों के होहल्ले में भाजपा की विकास की आवाज उस के गले में ही घुटी जा रही है क्योंकि कोई अब यह घुट्टी पीने को तैयार नहीं. चारों तरफ से अगड़े, पिछड़े, दलित और महादलित जैसे विशेषणों की बौछार हो रही है. ऐसे में मोदीछाप छाता चल पाएगा ऐसा लग नहीं रहा. रामविलास पासवान की खीझ नरेंद्र मोदी के उतरते जादू को ले कर ज्यादा है. एनडीए की जीत अब गारंटेड नहीं रह गई है. लिहाजा, कोई नई तिकड़म उसे भिड़ानी पड़ेगी. पर मांझी को काबू करने का कोई फार्मूला नहीं निकल रहा. मांझी कोई करिश्मा भले ही न कर पाएं पर दलितों का वर्गीकरण कर सीना तानते वे सीटों की सौदेबाजी में भारी पड़ रहे हैं. पासवान का एक डर यह भी है कि कहीं इस भगदड़ में मांझी की आस्था नीतीश व लालू में फिर से जाग्रत न हो जाए.

आडवाणी का आफतकाल

चूंकि यह मान लिया गया है कि लालकृष्ण आडवाणी जो भी बोलेंगे वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ ही होगा, इसलिए आपातकाल वाले उन के बयान के सभी ने स्वच्छंदतापूर्वक मतलब ऐसेऐसे निकाले कि खुद आडवाणी हैरान रह गए. वे यह नहीं समझा पाए कि 39 साल पहले कांग्रेस नेत्री इंदिरा गांधी और उन के तानाशाह बेटे संजय गांधी ने लोगों का उठना, बैठना और बोलना तक मुहाल कर दिया था. एक जमाना यह है कि कोई भी कुछ भी बोल सकता है. खासतौर से सोनिया व राहुल गांधी को बेहिचक मंच से गाली दी जा सकती है. आपातकाल और उस के बाद 2014 तक के अपवाद सालों को छोड़ दें तो नेहरूगांधी परिवार से बदला लेने का यह सुनहरा मौका है. बेचारे आडवाणी अतीत के मोहपाश में बंधे यह सोच रहे थे कि वे भी क्या दिन थे, जेल में बैठे गाने सुनते रहो, बहसें करते रहो और आज कुछ यों ही बोल दो तो हर किसी की जलीकटी सुननी पड़ती है कि लो, खुद पीएम नहीं बन पाए तो यों भड़ास निकाल रहे हैं यानी बोलना आज भी गुनाह है.

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